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    किसानों को संगठित किसान राजनीति की जरूरत





    किसान ओर राजनीति march 22/2019

    मौसम की मार से फसलों के नुकसान से उपजे संकट ने किसान वर्ग को चर्चा के केन्द्र में ला दिया है, उसे मुआवजे सहित राहत उपलब्ध कराने के नाम पर राजनीतिक सरगर्मियाँ तेज हो गई हैं। इसी बीच किसानों की आत्महत्या और सदमे से होनी वाले मौतों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। अनेक कृषि विशेषज्ञ और खेती-किसानी मसलों पर समझ रखने वाले लोगों के अनेक सुझाव और उपाय विमर्श के केन्द्र में बने हुए हैं।
    बोट क्लब की घटना देश को जहाँ यह सन्देश देने में सफल रही कि किसानों की एकता को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता, वहीं दूसरी ओर इसने इस बात की पुष्टि कर दी कि किसानों से जुड़े संगठन की विफलता के केन्द्र में किसान नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही है। इस घटना ने इस बात पर भी मुहर लगाई कि किसानों के हित के लिए दीर्घकालिक रूप से प्रभावी नीतियों की जरूरत है। कर्ज माफी, मुआवजा, कुछ सुधार वाले कदमों से यह बात नहीं बनने वाली है, आज तक तात्कालिक लाभ के नाम पर किसानों को ठगा ही जा रहा है। किसान वर्ग के असंगठित होने की वजह से सरकारों ने भी उनकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी है।
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    लम्बे समय बाद किसानों की इस भयंकर विपदा के बीच अन्नदाता को लेकर सरकारें भी फिक्रमन्द दिखाई दे रही है, लेकिन तमाम अपेक्षित सहयोग और समर्थन के बाद भी असल मुद्दा यह बना हुआ है कि किसानों के स्थायी हित की दिशा में कैसे कार्य किया जाए। क्या तात्कालिक मुआवजा और सहूलियतें देने से कृषक वर्ग की दशा में पर्याप्त सुधार आ सकता है। यह मौजूं सवाल उभर कर सामने आ रहा है कि बीते तीन दशकों में किसानों से जुड़ी समस्याओं के केन्द्र में राष्ट्रीय विमर्श की बात करें तो 2 अक्टूबर, 1989 को दिल्ली के बोट क्लब पर करीब पाँच लाख किसान प्रतिनिधियों की ऐतिहासिक अखिल भारतीय पंचायत की याद आ जाती है, जिसने पहली बार समूचे देश को इस वर्ग की संगठित ताकत का एहसास कराया। इस पंचायत में जहाँ एक ओर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब से बड़ी संख्या में किसान सम्मिलित हुए थे, वहीं दूसरी ओर बिहार, उड़ीसा, हरियाणा से भी काफी संख्या में प्रतिनिधि पहुँचे थे, साथ ही तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान के छोटे समूहों ने भी शिरकत की थी। देश की आजादी के बाद यह अपने-आप में राष्ट्रीय स्तर का एक ऐतिहासिक जुटान था, हालाँकि कार्यक्रम के संचालन को लेकर महाराष्ट्र के श्वेतकारी संगठन के अगुआ शरद जोशी और जाटलैण्ड के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के बीच उभरे मतभेद की वजह से यह पंचायत अपने लक्ष्य को पाने में विफल रह गई, जिसके बाद से किसान आन्दोलन को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठन नहीं बन सका।
    देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में किसानों की समस्याओं को देखते हुए मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने जिस तेजी से मदद देने की पहल की है, वह सराहनीय है। पहली बार मुआवजे की किस्त के रूप में 200 करोड़ फिर इसमें 300 करोड़ रुपए और जोड़ने के साथ बीती रात इस बजट को 1000 करोड़ कर देना किसानों के प्रति सरकार की प्राथमिकता को ही दर्शाता है। मुआवजे का आधार फसल के पच्चीस फीसदी नुकसान होने को आधार बनाने के साथ ही जिलाधिकारियों को कैम्प लगाकर यह रकम प्रभावितों को तत्काल दिए जाने के फैसले ने लोकतान्त्रिक सरकार के सरोकारी रवैए पर मुहर लगाई है। हालाँकि कुछ जिलों से प्रशासनिक लापरवाही की घटनाएँ सरकार के फैसले को प्रभावित करने का कार्य कर रही हैं, जिनपर त्वरित रूप से दण्डात्मक कार्यवाही किया जाना जरुरी है।

    भारत में राजनीति समाज के सभी वर्गों को गहरे तक प्रभावित करती आ रही है। हाल के वर्षों में इसके अनेकों उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो समूह चुनावी गणित के हिसाब से राजनीतिक दलों को फायदा पहुँचा पा रहा है, उसके हितों को ध्यान में रखकर सरकारें फैसले ले रही हैं, चूँकि किसान अपने-आप में ही जाति-वर्ग के अनेक स्तरों में बँटा हुआ है। ऐसे में इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए नीति निर्धारण में उसके हितों को नजरअन्दाज किया जा रहा है। केन्द्र सरकार के हालिया भूमि अधिग्रहण बिल के माध्यम से इस बात को समझा जा सकता है, पिछले दो महीनों से मौसम के अचानक होने वाले बदलाव से समूचे देश का किसान आहत है। खेतों में खड़ी फसल के नुकसान से उपजे संकट को देखते हुए वह आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है।
    ऐसे में देश में सोचने-समझने वाले लोगों और खेती-किसानी से जुड़े व्यक्तियों सहित संगठनों को राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक किसान वर्ग के दीर्घकालिक हितों के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने के लिए सरकारों पर दबाव बनाने और बनाए रखने की दिशा में सक्रिय होना चाहिए, साथ ही लोकतन्त्र में वोट की कीमत को समझते हुए राजनीतिक तौर पर एकजुट होने की दिशा में भी गम्भीर विचार करना सामयिक और दूरदर्शी कदम होगा। तब जाकर बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में किसानों को सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीने का हक मिलेगा, अन्यथा गाँव-खलिहान की यह बदहाली बदस्तूर जारी रहेगी, जिसकी जवाबदेही देश के सभी नागरिकों पर होगी।
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