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    किसानोंं की समस्या का कब होगा निदान





    मुश्किल यही है कि किसान का सवाल अर्थव्यवस्था और देश की 

    दो-तिहाई आबादी के जीवन-मरण का सवाल न बनकर, चुनाव और राजनीति का सवाल ही बनकर रह गया है, केन्द्र और राज्य सरकारें जबर्दस्त तत्पर दिखती हैं, पर किसानों की नाराजगी बढ़ती जा रही है। किसान जबर्दस्त उत्पादन करके भी कंगाल होता जा रहा है।

    साल में दोबारा किसानों का जमावड़ा मुम्बई में हुआ और जल्दी ही बिखर गया। मार्च के जमावड़े से मुम्बई और मुल्क में जितना हंगामा मचा इस बार उतना भी कुछ नहीं हुआ। किसान बुधवार को चूना भट्टी के नजदीक एक मैदान में जमा होकर आजाद मैदान की तरफ बढ़ने लगे तभी सरकार सक्रिय हुई। इधर किसानों के जमावड़े में विधानसभा में विपक्ष के नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल, राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शशिकान्त शिंदे, शिवसेना के मंत्री विजय शिवतारे तथा विजय चव्हाण जैसे विपक्षी नेता किसानों से सहमति जताने पहुँचे।

    उधर मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने किसानों के लोक संघर्ष मोर्चा की नेता प्रभा शिंदे को बातचीत के लिये बुलाया। उन्होंने साथ ही जल संसाधन मंत्री गिरीश महाजन, आदिवासी विकास मंत्री विष्णु सवारा, सहकारिता राज्य मंत्री गुलाब राव पाटिल और मुख्य सचिव को भी बैठाया और पालघर, धुले, जलगाँव, नंदुरबार, नासिक, चन्द्रपुर और गढ़चिरौली के कलेक्टरों को वीडियों कॉन्फ्रेसिंग के जरिये जोड़े रखा। इस तत्परता ने सभी को प्रभावित किया, सरकार ने किसानों की सभी माँगों को मानकर टकराव का एक और दौर टाल दिया। किसानों की सारी माँगों, मुख्यतः फॉरेस्ट राइट से जुड़ी, को सही बताते हुए मुख्यमंत्री ने उन्हें मिशन मोड में सुलझाने का वायदा किया। इस तत्परता और स्वीकारोक्ति पर कौन न मर जाए। किसान भी खुश हुए और लौट गए, पर खेती-किसानी, फडणवीस और मोदी सरकार के वायदों से जुड़े काफी सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं।

    पहला सवाल तो यही है कि मार्च में हुए समझौते का क्या हुआ? और जिस फॉरेस्ट राइट का सवाल इस बार प्रमुख था, वह मसला तो 2006 से अटका पड़ा है। उसके 3,60,452 मामलों में से सिर्फ 1,14,432 मामले ही तीन-स्तरीय जाँच के बाद दायर हो पाए हैं, उनका निपटारा तो दूर की बात है। सरकार ने मामले को तत्काल निपटाने का आश्वासन जरूर दिया, पर कोई समय सीमा तय नहीं की। सिर्फ यह राहत दी गई कि जिन किसानों का दावा स्वीकृत हुआ है, उनको सूखा राहत दिया जाएगा।

    किसान मार्च और जल्द निपटारे के इस फैसले के साथ दो चीजों को जोड़कर देखने से फडणवीस सरकार का किसान प्रेम समझ आता है- चार राज्यों के चुनाव में खेती-किसानी के सवाल की प्रमुखता और महाराष्ट्र में इस बार भयंकर सूखा पड़ने के आसार, मुश्किल यही है कि किसान का सवाल अर्थव्यवस्था और देश की दो-तिहाई आबादी के जीवन-मरण का सवाल न बनकर, चुनाव और राजनीति का सवाल ही बनकर रह गया है। केन्द्र और राज्य सरकारें जबर्दस्त तत्पर दिखती हैं। पर किसानों की नाराजगी बढ़ती जा रही है। किसान जबर्दस्त उत्पादन करके भी कंगाल होता जा रहा है। वह ज्यादा पैदा करता है, तो ज्यादा संकट पड़ता है, केन्द्र ने किसानों से खरीद के लिये 15 हजार करोड़ से ज्यादा की रकम मंजूर की। इस फसल वर्ष के लिये करीब 7 हजार करोड़ और अगले फसल वर्ष के लिये 8 हजार करोड़ इसके अलावा किसानों को ज्यादा कर्ज उपलब्ध कराने के लिये नाफेड को भी साढ़े सोलह हजार करोड़ रुपए दिए जाएँगे। पीएसएस को सिर्फ दालों, तिलहन और नारियल पर केन्द्रित किया जाएगा तो पीडीपीएस पहले से पंजीकृत किसानों को बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अन्तर के भुगतान पर फोकस करेगा। यह मध्य प्रदेश के भावान्तर भुगतान योजना का विस्तार जैसा है।

    सरकार किसानों के मोर्चे पर पूरी तरह मुस्तैद दिखना चाहती है। उसने पिछले दिनों अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य में जो भारी वृद्धि की है, ये कदम उसे लागू कराने के लिये है। और जैसा सरकार का दावा है, ये दाम नरेन्द्र मोदी के उस वायदे को पूरा करते हैं जो किसानो को लागत से ड्यौढ़ा देने का था। तब चर्चा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मानने की थी और अब, जब सरकार ने यह घोषणा कर दी है तो योगेन्द्र यादव जैसे किसान नेता कहते हैं कि यह धोखा है क्योंकि इसमें लागत खर्च की गणना में किसान की पूँजी लागत का हिसाब ही नहीं जोड़ा गया है। वह जोड़ने से कीमतें और ऊपर जाएँगी और तभी खेती लाभदायक हो पाएगी। दूसरी ओर सवामीनाथन अय्यर जैसे अर्थशास्त्री हैं, जिनका मानना है कि इतना ऊँचा समर्थन मूल्य घोषित करके सरकार ने अपने और किसानों के गले में फाँस डाल लिया है। न इतने ऊँचे मूल्य पर कोई अनाज खरीदेगा और न ही वापस बेचा जा सकेगा या निर्यात हो पाएगा। सरकार का यह फैसला बाजार की माँग और आपूर्ति के बुनियादी फॉर्मूले को नजरअन्दाज करता है। इन्हें जबरन लागू कराने से कीमतें, खासकर दाल और खाद्य तेल की, एक बार में काफी ऊपर आएँगी और किसान को खुश करने के चक्कर में सरकार आम उपभोक्ताओं की नजर में गिर जाएगी। इस बार सरकार ने किसान से खरीद के काम में पहली बार आधिकारिक रूप से निजी क्षेत्र अर्थात निजी आढ़तियों को भी शामिल करने का फैसला किया है। और हद यह है कि महाराष्ट्र सरकार ने पिछले दिनों यह घोषणा और कर दी कि जो आढ़ती न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे कीमत पर अनाज खरीदते पकड़े जाएँगें उन्हें एक साल कैद और 50 हजार रुपए जुर्माना लगेगा।

    स्वामीनाथन तो लेख लिखते हैं, भाजपा ने फैसले लिये हैं, ऐसा अटल राज में भी हुआ और आज मोदी राज में भी हुआ। अटल जी के समय तो स्वदेशी का मुखौटा भी कुछ समय रहा। पर इस बार तो मनमोहन-चिदम्बरम से भी तेज उदारीकरण करने की जल्दी है। पर दिक्कत यह है कि ये मॉडल भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिये उपयुक्त नहीं है, जहाँ सारी बदहाली के बावजूद आज भी दो-तिहाई, लोग खेती-किसानी और पशुपालन के भरोसे जीवन बसर करते हैं जहाँ अभी भी शहरीकरण काफी कम है। और लाख स्मार्ट सिटी योजना हो, अभी दूर-दूर तक गाँवों की मजबूती बनी रहने का लक्षण साफ दिखता है। ऐसे में उदारीकरण जो तेज गैर-बराबरी पैदा कर रहा है, उस पर अंकुश लगाए बगैर काम नहीं चलने वाला है।

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