किसानों की आय को सुनिश्चित करे सरकार ,
उत्पादक अर्थव्यवस्था का आधार होने के नाते किसान के लिये 60 वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हकदार माना जाना चाहिए। यदि अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ देश उठा सकता है तो उत्पादक किसान का क्यों नहीं। एक समय था, जब कहावत हुआ करती थी, ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार; निकृष्ट चाकरी, करे गंवार’ किन्तु आज स्थिति बदल चुकी है। उत्पादक अर्थव्यवस्था की रीढ़- किसान की हालत बद से बदतर होती जा रही है। आज किसान कहलाना सम्मान की बात नहीं रह गई है। भारत में आज भी 55 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर करती है। यानि यह अकेला क्षेत्र सबसे ज्यादा रोज़गार पैदा करता है। गलत कृषि नीतियों के कारण ही किसान बदहाल है। हालाँकि कृषि उपज बढ़ाने के लिये बेहतरीन वैज्ञानिक प्रगति हुई है। देश अनाज आयात करने की मजबूरी से निकल कर निर्यात करने की स्थिति में आ गया है। किंतु किसान की हालत नहीं सुधरी है।
उत्पादक अर्थव्यवस्था का आधार होने के नाते किसान के लिये 60 वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हकदार माना जाना चाहिए। यदि अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ देश उठा सकता है तो उत्पादक किसान का क्यों नहीं।
हालांकि मोदी सरकार ने इसे अब अपने 2019 के घोषणा पत्र में शामिल किया है अब देखना है ये जमीन पर नजर आता है या नही ,
एमएसपी से ज्यादा खर्च में बढ़ोतरी,
इसके पीछे कई कारण हैं जिन्हें समझना होगा। सबसे बड़ा कारण तो किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य न मिलना है। किसान की उपज के मूल्यों में 1947 से अब तक 19 गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। जबकि उसके निवेश की कीमतों में 100 गुणा से ज्यादा बढ़ोत्तरी हो गई है। इसके साथ ही नौकरी पेशा कर्मियों के वेतन में 150 से 320 गुणा तक वृद्धि हो गई है। इस तरह मजदूरी के स्तर की नौकरी करने वाले की स्थिति भी किसान से बेहतर है। यह व्यापारी, औद्योगिक और शहरी समझ पर आधारित नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि कृषि को अकुशल व्यवसाय की तरह देखा जाता है। एक फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर तो कुशल मजदूर है किन्तु किसान नहीं। जबकि सदियों से संचित और आधुनिक ज्ञान पर आधारित उद्यमिता के बिना कृषि कार्य संभव ही नहीं।
एक ओर किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलता दूसरी ओर लागत में लगातार वृद्धि होती जा रही है। मौसम पर निर्भरता में भी कोई खास कमी नहीं आई है। भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण भी किसान अपनी फसल को औने पौने दम पर बेचने को विवश रहता है। महँगी कृषि पद्धति स्थिति को और बिगाड़ने में मददगार साबित हो रही है। इन परिस्थितियों में किसान ऋण जाल में फँसता जा रहा है। आखिर किसान भी उसी समाज का हिस्सा है, उसे भी बीमारी- हारी और सामाजिक रस्मों रिवाज के बोझ को भी ढोना पड़ता है। समाज में विद्यमान प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। जब खेती के खर्च की ही भरपाई नहीं होगी तो बाकि सामाजिक खर्चों के साथ कैसे जूझे। इन हालात से तंग आकर किसान आज सड़कों पर उतरने को मजबूर है।
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किसान आंदोलन का राजनीतिक फायदा
यह कहना अपनी जगह सही हो सकता है कि किसानों के आन्दोलन को हिंसक बनाने में कुछ राजनैतिक दलों का हाथ है। जिसमें कांग्रेस की भूमिका संदिग्ध लग रही है। हालाँकि आज़ादी के बाद 90% समय तो कांग्रेस और उसकी सहायक पार्टियों का ही शासन रहा है। इसलिए किसान की बदहाली के लिये भी उनकी ज़िम्मेदारी ज्यादा बनती है। इस सबके बावजूद इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि किसान की दशा वर्तमान शासन में भी सुधरी नहीं है। इसीलिए किसान अपनी आवाज़ बुलंद करने लगा है। किसानों द्वारा आत्महत्याओं का दौर पिछले दो दशकों से लगातार जारी है।
जहाँ भी इस तरह के आन्दोलन चलते हैं वहाँ सब तरह के राजनैतिक निहित स्वार्थ घुसपैठ करके अपनी-अपनी वोट की राजनीति चमकाने के लिये पहुँच ही जाते हैं। इसमें कुछ हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। किन्तु आन्दोलन को यह समझना ज़रूरी है कि आन्दोलन को दिया जाने वाला कोई भी हिंसक मोड़ आन्दोलन को कमजोर करने का ही काम करेगा। हिंसक आन्दोलन में मुख्य मुद्दे तो गुम हो जाते हैं और वोट बैंक की राजनीति आन्दोलन को हाई जैक कर लेती है। किसान आन्दोलन को इस खतरे को भाँपते हुए सावधानी से आगे बढ़ना होगा। प्रशासनिक अमले के कार्य, जिनकी आय को आज़ादी के बाद 320 गुणा बढ़ाया गया अपनी जगह ज़रूरी है किंतु अधिकांशत: प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक नहीं। अर्थव्यवस्था में उनका योगदान अप्रत्यक्ष होता है।
किंतु किसान तो प्रत्यक्ष उत्पादन कार्य में लगा है। उसका महत्त्व प्रशासनिक अमले से कम नहीं हो सकता। वह जीवन-यापन के लिये अन्न के साथ-साथ बहुत से उद्योगों के लिये कच्चे माल का भी उत्पादन करता है। इसलिये देश के औद्योगिक विकास में भी उसकी अहम भूमिका है। अत: उसकी आय को भी आज़ादी के बाद कम से कम 100 गुणा तक बढ़ाने का लक्ष्य सरकारों और किसान आन्दोलन के सामने होना चाहिए। ऋण माफ़ी तक ही किसान आन्दोलन सिमित नहीं हो सकता। असली प्रश्न तो यह है कि आखिर किसान ऋण ग्रस्त क्यों हुआ है। किसान को ऋण ग्रस्त बनाने वाले हालात पैदा करने का ज़िम्मेदार कौन है, इस बात का जवाब राजनितिक दलों को देना चाहिए। ऋण माफ़ी आपात स्थिति में तनिक राहत से ज्यादा कुछ नहीं है। राहत के रूप में इसका प्रयोग होना ही चाहिए।
पक्की की जाए निश्चित आय
किसानों की एक और बड़ी समस्या यह है कि सरकार करीब दो दर्जन फसलों का एमएसपी घोषित तो कर देती है लेकिन उसको खरीदने की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करती। हकीकत यह है कि पंजाब, हरियाणा, पूर्वी व उत्तरी राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि को छोड़कर कहीं भी एमएसपी पर फसल खरीदने की कोई व्यवस्था नहीं है
किसान लंबे अरसे से फसलों के वाजिब दाम की मांग कर रहे हैं। उनकी इस मांग से सरकार भी पूरी तरह सहमत है। इस मुद्दे पर किसी अन्य पक्ष को भी कोई आपत्ति नहीं है। इस बात को सभी लोग मानते हैं किसानों को उनकी फसल का उचित एवं लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए। इसी तर्क के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मूल्य प्रणाली शुरू की गई थी। प्रारंभ में गेहूँ और धान सहित सिर्फ दो फसलों के लिये यह व्यवस्था की गई थी। वर्ष 1986 में यह 22 जिंसों के लिये लागू की गई। कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) अब शायद 24 या 25 फसलों के एमएसपी तय करता है। इस व्यवस्था में जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होता था उसका आकलन खेती की लागत के आधार पर होता है। कृषि विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों और संसदीय समितियों द्वारा दर्जनों रिपोर्टों में कहा जा चुका है कि एमएसपी प्रणाली में तमाम तरह की खामियाँ हैं इन्हें दूर करने की जरूरत है।
कृषि मूल्य एवं लागत आयोग कृषि मंत्रालय की इकाई है। यह आयोग जिस आधार के जरिए लागत का हिसाब लगाता है उसमें कई बड़ी खामियाँ हैं। इसके तहत सिंचित और गैर सिंचित क्षेत्रों में खेती की लागत के औसत के आधार पर एमएसपी तय किया जाता है। हकीकत यह है कि जिन क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, वहाँ पानी के अभाव में किसान खाद व बीज का पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाते। उनकी अच्छे बीज और महँगा खाद खरीदने की क्षमता नहीं होती। जाहिर है उनकी लागत काफी कम आती है। इसीलिए उनकी उत्पादकता बहुत कम होती है। मोटे तौर पर यह बात मैं पहले भी बता चुका हूँ। भारत में 60 फीसद खेती पूरी तरह से बारिश पर आधारित है। केवल 40 फीसद खेती के लिये सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं। बारिश आधारित खेती में 1.2 टन प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन है जबकि सिंचित क्षेत्र में यह औसत चार टन प्रति हेक्टेयर है।
जो किसान चार टन प्रति हेक्टेयर का उत्पादन लेता है उसमें खाद, बीज, कीटनाशक एवं निराई व गुड़ाई के एवज में ज्यादा लागत आती है। सीएसीपी असिंचित और सिंचित क्षेत्र की लागत का औसत लगाता है। जाहिर है यह प्रणाली सटीक नहीं है। जिन क्षेत्रों में उत्पादकता कम है उनके पास बेचने के लिये सरप्लस फसल होती ही नहीं है। ऐसे में इन किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई महत्त्व ही नहीं है। पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहाँ सिंचाई के पर्याप्त साधन हैं वहाँ सरप्लस फसल होती है। इन फसलों की लागत काफी ज्यादा होती है। जब ये किसान अपनी फसल बेचते हैं तो उन्हें मुनाफा मिलना तो दूर पूरी लागत भी नहीं मिल पाती है।
एमएसपी की खामिया ,
पिछले दिनों इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई तो सरकार की ओर से शपथ पत्र दाखिल किया गया कि सरकार किसी भी सूरत में इस सिफारिश को लागू नहीं कर सकती। बाद में भाजपा की ओर से यह भी कहा गया कि यह तो महज चुनावी जुमला था। किसानों की एक और बड़ी समस्या यह है कि सरकार करीब दो दर्जन फसलों का एमएसपी घोषित तो कर देती है लेकिन उसको खरीदने की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करती। हकीकत यह है कि पंजाब, हरियाणा, पूर्वी व उत्तरी राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि को छोड़कर कहीं भी एमएसपी पर फसल खरीदने की कोई व्यवस्था नहीं है। जहाँ पर व्यवस्था है वहाँ सिर्फ गेहूँ और धान की फसल ही एमएसपी पर खरीदी जाती है।
किसानों की सबसे पहली मांग स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने की है। जब भाजपा इस वादे के जरिए सत्ता में आई थी तो इसे लागू क्यों नहीं किया गया। दूसरी मांग यह है कि जब सरकार एमएसपी तय करती है तो उस भाव पर देशभर में किसानों की पूरी फसल की खरीद की व्यवस्था की जाए। स्थिति यह है कि यदि मूंग का एमएसपी 5000 रुपए है और वह पूरे सीजन 3800 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बिकती रही। हैरानी की बात यह है कि इसकी दाल के भाव 100 रुपए प्रति किलोग्राम से नीचे नहीं आए जबकि दलहन से दाल तैयार करने में 10 फीसद से ज्यादा खर्चा नहीं आना चाहिए। कहने का आशय यह है कि किसान साल भर मेहनत करके फसलें तैयार करता है और उसे लागत भी नहीं मिल पाती जबकि बिचौलिए मोटा माल काट रहे हैं। यह तो महज बानगी है। ज्यादातर फसलों के बारे में यही स्थिति है।
किसानों की एक और मांग यह है कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग जब सरकार की इकाई है तो उसकी एमएसपी संबंधी घोषणा पर अमल क्यों नहीं होता। पिछड़ा आयोग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति की तरह कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। यदि किसी जिंस का भाव एमएसपी से नीचे जाता है तो सरकार को सारी फसल एमएसपी पर खरीदनी चाहिए। तीसरी मुख्य बात यह है कि जब भी देश में किसी जिंस की कमी होती है तो उसका तत्काल आयात कर लिया जाता है। जब किसान को किसी जिंस के वैश्विक बाजार में अच्छे दाम मिलते हैं तो उसके निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। ताजा मामला प्याज का है।
लागत भी कम करनी होगी
कृषि उत्पाद को लाभकारी मूल्य तो मिलना ही चाहिए किंतु कृषि लागत को कम करना भी उतना ही ज़रूरी होता जा रहा है। अंधाधुंध मशीनीकरण और रासायनिक कृषि से किसान की कमाई कृषि मशीनें बनाने वाले उद्योगों और बैंक ब्याज के माध्यम से बैंकों की जेबों में जा रही है। कृषि पद्धति को वैज्ञानिक समझ से अनावश्यक मशीनीकरण से बचना होगा। छोटे किसान बैलों से खेती करें। बैलों से चलने वाले उन्नत उपकरण बनाए जाएँ जो किसान को ट्रैक्टर से खेती जैसी सुविधा दे सकें। बैल तो किसान ही पालेगा इससे बैल खरीदने बेचने पर पैसा तो किसान की ही जेब में जाएगा। रासायनिक कृषि पद्धति ने कृषि की लागत को बहुत बढ़ा दिया है। जैविक कृषि के माध्यम से किसान के खेतों के अपशिष्ट और गोबर एवं गोमूत्र से किसान की खाद और दवाई की अधिकांश जरूरतें पूरी हो सकती हैं। यह कार्य किसान स्वयं अपने श्रम से ही बिना ऋण लिये कर सकता है। इससे कृषि लागत में काफी कमी आ सकती है। रासायनिक कृषि को ज़रूरत से ज्यादा फ़ैलाने का कार्य करने वाले कृषि विश्व विद्यालयों को ही ‘कम लागत वैज्ञानिक कृषि’ का वाहक बनाया जाना चाहिए।
ख़रीद ओर निर्यात भी सुनिश्चित करना होगा
इसके निर्यात को हतोत्साहित करने के लिये सरकार ने कई तरह की बंदिशें लगा दी हैं। ऐसा हमेशा देखा जाता है जब उपभोक्ताओं के हितों की बात आती है तो सरकार उनकी रक्षा के लिये तुरंत खड़ी हो जाती है और किसानों के हितों की उसे कोई चिंता नहीं है। ऐसे में सरकार को किसानों का कैसे हितैषी कहा जा सकता है ? दूध, सब्जी व फलों की खरीद के बारे में भी कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है। इन उत्पादों की खरीद सुनिश्चित करनी चाहिए।
क्या हैं उपाय ?
यूरोपीय देशों की बात करें तो स्विट्जरलैंड सरकार किसानों को 3000 यूरो (करीब 2.10 लाख रुपए) प्रति हेक्टेयर सीधे-सीधे खेती करने के लिये सब्सिडी देती है। इस व्यवस्था को डायरेक्ट पेमेंट सिस्टम कहा जाता है। अमेरिका समेत सभी विकसित देशों में इसी तरह की व्यवस्था है। जब मैं किसान आयोग में था तब मैंने भी किसानों की बंधी हुई आय देने का सुझाव दिया था। इसके साथ ही उद्योग की तरह खेती की लागत निकालने का फार्मूला सुझाया था लेकिन तमाम कारणों से इस पर कोई अमल नहीं हो पाया। मोदी सरकार किसानों की आय वर्ष 2022 तक दोगुना करने का जो वादा कर रही है उसमें कोई दम नहीं है। इसके लिये सरकार ने कोई रोडमैप ही तैयार नहीं किया है। इसके जरिए सरकार भोले-भाले किसानों को सिर्फ धोखा दे रही है। किसानों की आय बढ़ाने के लिये यूरोपीय देशों की तरह सरकार को एकमुश्त आमदनी सुनिश्चित करनी चाहिए।
यह लाभ छोटे और मझोले किसानों को दिया जाना चाहिए। शुरुआत में यह रकम कम से कम 10 से 15 हजार रुपए प्रति एकड़ निर्धारित की जानी चाहिए। यदि किसान को दो से तीन हजार रुपए प्रति बीघा की दर से सालाना आय निर्धारित कर दी जाए तो इस वर्ग के जीवन स्तर में सुधार आ सकता है। यदि सरकार इस दिशा में कदम बढ़ाती है तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को समाप्त कर सकती है। हालाँकि इसके लिये न्यूनतम और अधिकतम मू्ल्य घोषित किए जा सकते हैं। किसान अपने उत्पाद को खुले बाजार में बेच सकता है। यदि कोई व्यक्ति अधिकतम मूल्य से ज्यादा भाव पर कोई जिंस बेचता है तो उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिए। सरकार के पास आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत यह अधिकार प्राप्त है। यदि सरकार इस व्यवस्था को लागू कर दे तो किसानों का निश्चित तौर पर भला होगा जिसका फायदा अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।
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