अरहर (तुअर) उत्पादन तकनीक से किसानों को मिलेगा फयदा (Arhar (Tur) production technology will benefit farmers)
विशेष :-
मध्यप्रदेश में दलहनी फसलों के स्थान पर सोयाबीन के क्षेत्रफल में वृद्धि होने से दलहनी फसलों का रकबा घट रहा है। साथ-साथ अरहर फसल का क्षेत्र उपजाऊ समतल जमीन से हल्की ढालू, कम उपजाऊ जमीन पर स्थानांतरित हो रहा है जिससे उत्पादन में भारी कमी हो रही है। परंतु अरहर फसल की व्यापक क्षेत्रों के अनुकुल उच्च उत्पादन क्षमतावाली उकटारोधी प्रजातियों के उपयोग करने से उत्पादकता में होने वाले उतार-चढाव में कमी तथा उत्पादकता में स्थायित्व आया है। सिंचाई, उर्वरक तथा कृषि रसायनों के प्रयोग के बारे में कृषकों की बढ़ती जागरूकता दलहन उत्पादकता बढाने मे सहायक सिद्ध हो रही है। सामायिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर व कवक नाषियों से बीजोपचार तथा खरपतवार प्रबंधन जैसे बिना लागत के अथवा न्यूनतम निवेष वाले आदान भी उत्पादकता की वृद्धि करते है।
अग्रिम पंक्ति प्रदर्षनो द्वारा यह स्पष्ट दर्षाया जा चुका है कि उन्नतषील उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाकर अरहर की वर्तमान उत्पादकता को दुगना तक किया जा सकता है। दलहनी फसले खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती है। खरीफ की दलहनी फसलों में तुअर प्रमुख है। मध्यप्रदेश से अरहर की नई प्रजातियां जे.के.एम.-7, जे.के.एम.-189 व ट्राम्बे जवाहर तुवर-501, विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (संकर) दलहन विकास परियोजना, खरगोन द्वारा विकसित की गई है। अरहर को सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसल के रूप में लगाने की अनुषंसा कर करीब एक से दो लाख हेक्टेयर क्षेत्र का रकबा मध्यप्रदेष में बढ़ाया जा सकता है। अरहर फसल के बाद में रबी फसल भी समय पर ली जा सकती है। अतः ये जातियां द्विफसली प्रणाली में उपयुक्त है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी (Land selection and preparation) :-
हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई कर व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।
उन्नत किस्म का चुनाव (Improved seed selection) :-
बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
तालिका -1:- अरहर की किस्मे (कम अवधि) Types of Arhar (short term) :-
मध्यम गहरी भूमि में जहाँ पर्याप्त वर्षा होती हो और सिंचित एंव असिंचित स्थिति में मध्यम अवधि की जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
तालिका-2 अरहर की किस्मे (मध्यम अवधि) Types of Arhar (medium term) :-
अंतरवर्तीय फसल (Intercrop) :-
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।
बुवाई का समय व तरीका (Time and method of sowing) :-
अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।
बीज की मात्रा व बीजोपचार (Seed quantity and seed treatment) :-
जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।
खरपतवार नियंत्रण (weed control) :-
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।
सिंचाई (Irrigation) :-
जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।
पौध संरक्षण (Plant protection) :-
(अ). बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण (Diseases and their control) ,,--
1. उकटा रोग ;- यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पडते है। सितंबर से जनवरी महिनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है । इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है।
इस बीमारी से बचने के लिए रेागरोधी जातियाँ जैसे
जे.के.एम-189, सी.-11, जे.के.एम-7, बी.एस.एम.आर.-853, 736 आशा आदि बोये। उन्नत जातियों को बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम रहता है।
2. बांझपन विषाणु रोग ;- यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है। इसके लक्षण ग्रसित पौधों के उपरी शाखाओं में पत्तियाँ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नही लगती है। यह रोग माईट, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में बे मौसम रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए।
बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे आई.सी.पी.एल. 87119 (आषा), बी.एस.एम.आर.-853, 736 को लगाना चाहिए।
3. फायटोपथोरा झुलसा रोग ;- रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें तने पर जमीन के उपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है व पौधा हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफॅंूदनाशक दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और चवला या मूँग की फसल साथ में लगाये।
रोग रोधी जाति जे.ए.-4 एवं जे.के.एम.-189 को बोना चाहिए।
(ब). कीट (Pest ),,--
1. फली मक्खी ;- यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है। जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है और फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है, जिसके कारण फली पर छोटा सा छेद दिखाई पडता है। फली मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
2. फली छेदक इल्ली ;- छोटी इल्लियाँ फलियों के हरे ऊत्तकों को खाती हैं व बडे होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान करती है। इल्लियाँ फलियों पर टेढे-मेढे छेद बनाती है। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियाँ पीली हरी काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती हैं । शंखी जमीन में बनाती है प्रौढ़ रात्रिचर होते है जो प्रकाष प्रपंच पर आकर्षित होते है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
3. फली का मत्कुण ;- मादा प्रायः फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं , जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।
4. प्लू माथ ;- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूँद आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियाँ फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।
5. ब्रिस्टल ब्रिटल ;- ये भृंग कलियों फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है। जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उडद तथा अन्य दलहनी फसलों को नुकसान पहुचाता है। सुबह-षाम भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
(स). कीट नियंत्रण के तरीके (Pest control methods) ,,-
कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है।
1. कृषि कार्य द्वारा ;-
2. यांत्रिकी विधि द्वारा ;-
3. जैविक नियंत्रण द्वारा ;-
4. जैव-पौध पदार्थों के छिडकाव द्वारा ;-
5. रासायनिक नियंत्रण द्वारा ;-
कटाई एवं गहाई (Harvesting and mowing) :-
जब पौधे की पत्तियाँ खिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।
मध्यप्रदेश में दलहनी फसलों के स्थान पर सोयाबीन के क्षेत्रफल में वृद्धि होने से दलहनी फसलों का रकबा घट रहा है। साथ-साथ अरहर फसल का क्षेत्र उपजाऊ समतल जमीन से हल्की ढालू, कम उपजाऊ जमीन पर स्थानांतरित हो रहा है जिससे उत्पादन में भारी कमी हो रही है। परंतु अरहर फसल की व्यापक क्षेत्रों के अनुकुल उच्च उत्पादन क्षमतावाली उकटारोधी प्रजातियों के उपयोग करने से उत्पादकता में होने वाले उतार-चढाव में कमी तथा उत्पादकता में स्थायित्व आया है। सिंचाई, उर्वरक तथा कृषि रसायनों के प्रयोग के बारे में कृषकों की बढ़ती जागरूकता दलहन उत्पादकता बढाने मे सहायक सिद्ध हो रही है। सामायिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर व कवक नाषियों से बीजोपचार तथा खरपतवार प्रबंधन जैसे बिना लागत के अथवा न्यूनतम निवेष वाले आदान भी उत्पादकता की वृद्धि करते है।
अग्रिम पंक्ति प्रदर्षनो द्वारा यह स्पष्ट दर्षाया जा चुका है कि उन्नतषील उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाकर अरहर की वर्तमान उत्पादकता को दुगना तक किया जा सकता है। दलहनी फसले खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती है। खरीफ की दलहनी फसलों में तुअर प्रमुख है। मध्यप्रदेश से अरहर की नई प्रजातियां जे.के.एम.-7, जे.के.एम.-189 व ट्राम्बे जवाहर तुवर-501, विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (संकर) दलहन विकास परियोजना, खरगोन द्वारा विकसित की गई है। अरहर को सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसल के रूप में लगाने की अनुषंसा कर करीब एक से दो लाख हेक्टेयर क्षेत्र का रकबा मध्यप्रदेष में बढ़ाया जा सकता है। अरहर फसल के बाद में रबी फसल भी समय पर ली जा सकती है। अतः ये जातियां द्विफसली प्रणाली में उपयुक्त है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी (Land selection and preparation) :-
हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई कर व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।
उन्नत किस्म का चुनाव (Improved seed selection) :-
बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
तालिका -1:- अरहर की किस्मे (कम अवधि) Types of Arhar (short term) :-
अरहर की किस्मे/विकसित वर्ष | उपज क्वि./हे. | फसल अवधि | विशेषताऐं |
1. उपास-120 (1976) | 10-12 | 125-135 | असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की , कम अवधि में पकने वाली जाति |
2. आई.सी.पी.एल.-87 (1986) | 10-12 | 125-135 | सीमित वृद्धि की कम अवधि में पकती है। बीज गहरा लाल मध्यम आकार का होता है |
3. ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 (2008) | 19-23 | 145-150 | असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की , कम अवधि में पकने वाली, उकटा रोगरोधी जाति है। |
मध्यम गहरी भूमि में जहाँ पर्याप्त वर्षा होती हो और सिंचित एंव असिंचित स्थिति में मध्यम अवधि की जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
तालिका-2 अरहर की किस्मे (मध्यम अवधि) Types of Arhar (medium term) :-
अरहर की किस्में/विकसित वर्ष | उपज क्वि./हे. | फसल अवधि | विशेषताऐं |
1. जे.के.एम.-7 (1996) | असिंचित में 20-22 | 170-190 | असीमित वृद्धि वाली, भूरा-लाल दाना मध्यम आकार का होता है। यह उकटा रोधक जाति है |
2. आई.सी.पी -8863 (1986) | 20-22 | 150-160 | असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का भूरा लाल दाना होता है। यह उकटा रोधक जाति है। इस जाति में बांझपन रोग का प्रभाव ज्यादा होता है। |
3. जवाहर अरहर-4 (1990) | 18-20 | 180-200 | असीमि तवृद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, फायटोपथोरा रोगरोधी |
4. आई.सी.पी.एल 87119 (आषा 1993) | 18-20 | 160-190 | असीमित वद्धि वाली, मध्यम अवधि वाली बहुरोग रोधी (उकटा, बांझपन रोग) जाति है। मध्यम आकार का लाल दाना होता है। |
5.बी.एस.एम.आर 853 (वैषाली, 2001) | 18-20 | 170-190 | असीमित वृद्धि वाली, सफेद दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटा व बांझपन रोग) |
6. बी.एस.एम.आर.- 736 (1999) असीमित वद्धि | 18-20 | 170-190 | वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, मध्यम अवधि वाली, उकटा एवं बांझरोग रोधक है। |
7. विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (2010) | 22-25 | 164-184 | असीमित वृद्धि वाली, फूल पीले रंग का घनी लाल धारियो वाली, फलियां हल्के बैंगनी रंग एवं गहरा लाल दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटा व बांझपन रोग ) |
8. जे.के.एम.189 (2006) | असिंचित में 20-22 अर्धसिंचित में 30-32 | 160-170 | असीमित वृद्धि वाली, हरी फल्ली काली धारियों के साथ, लाल-भूरा बड़ा दाना, 100 दानों का वजन 10.1 ग्राम व उकटा, बांझपन व झुलसा रोगरोधी एवं सूत्रकृमी रोधी एवं फली छेदक हेतु सहनषील देर से बोनी में भी उपयुक्त |
तालिका-3: उत्तर पूर्व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त प्रजातियां (लंबी अवधि) species suitable for North East Madhya Pradesh (long term)
अरहर की किस्में /विकसित वर्ष | उपज क्वि/हे. | फसल अवधि | विशेषताऐं |
1. एम.ए-3 (मालवीय, 1999) | 18-20 | 210-230 | असीमीत वृद्धि वाली, भूरे रंग का बड़ा दाना, सूखा एवं बांझपन रोगरोधी, म.प्र. के उत्तर-पूर्व भाग के लिए उपयुक्त |
2. ग्वालियर-3 (1980) | 15-18 | 230-240 | असीमीत वृद्धि वाली, भूरे रंग का बड़ा दाना, सूखा एवं बांझपन रोगरोधी, म.प्र. के उत्तर-पूर्व भाग के लिए उपयुक्त |
अंतरवर्तीय फसल (Intercrop) :-
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।
- अरहर ,,- मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)
- अरहर ,,- उडद या मूंग 1:2 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)
- अरहर की उन्नत जाति जे.के.एम.-189 या ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 को सोयाबीन या मूंग या मूंगफली के साथ अंतरवर्तीय फसल में उपयुक्त पायी गई है।
बुवाई का समय व तरीका (Time and method of sowing) :-
अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।
बीज की मात्रा व बीजोपचार (Seed quantity and seed treatment) :-
जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।
खरपतवार नियंत्रण (weed control) :-
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।
सिंचाई (Irrigation) :-
जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।
पौध संरक्षण (Plant protection) :-
(अ). बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण (Diseases and their control) ,,--
1. उकटा रोग ;- यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पडते है। सितंबर से जनवरी महिनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है । इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है।
इस बीमारी से बचने के लिए रेागरोधी जातियाँ जैसे
2. बांझपन विषाणु रोग ;- यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है। इसके लक्षण ग्रसित पौधों के उपरी शाखाओं में पत्तियाँ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नही लगती है। यह रोग माईट, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में बे मौसम रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए।
बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे आई.सी.पी.एल. 87119 (आषा), बी.एस.एम.आर.-853, 736 को लगाना चाहिए।
3. फायटोपथोरा झुलसा रोग ;- रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें तने पर जमीन के उपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है व पौधा हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफॅंूदनाशक दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और चवला या मूँग की फसल साथ में लगाये।
रोग रोधी जाति जे.ए.-4 एवं जे.के.एम.-189 को बोना चाहिए।
(ब). कीट (Pest ),,--
1. फली मक्खी ;- यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है। जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है और फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है, जिसके कारण फली पर छोटा सा छेद दिखाई पडता है। फली मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
2. फली छेदक इल्ली ;- छोटी इल्लियाँ फलियों के हरे ऊत्तकों को खाती हैं व बडे होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान करती है। इल्लियाँ फलियों पर टेढे-मेढे छेद बनाती है। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियाँ पीली हरी काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती हैं । शंखी जमीन में बनाती है प्रौढ़ रात्रिचर होते है जो प्रकाष प्रपंच पर आकर्षित होते है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
3. फली का मत्कुण ;- मादा प्रायः फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं , जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।
4. प्लू माथ ;- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूँद आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियाँ फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।
5. ब्रिस्टल ब्रिटल ;- ये भृंग कलियों फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है। जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उडद तथा अन्य दलहनी फसलों को नुकसान पहुचाता है। सुबह-षाम भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
(स). कीट नियंत्रण के तरीके (Pest control methods) ,,-
कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है।
1. कृषि कार्य द्वारा ;-
- गर्मी में गहरी जुताई करें ।
- शुद्ध/सतत अरहर न बोयें ।
- फसल चक्र अपनाये ।
- क्षेत्र में एक समय पर बोनी करना चाहिए।
- रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा ही डालें।
- अरहर में अन्तरवर्तीय फसले जैसे ज्वार , मक्का, सोयाबीन या मूंगफली को लेना चाहिए।
2. यांत्रिकी विधि द्वारा ;-
- प्रकाश प्रपंच लगाना चाहिए
- फेरोमेन टेप्स लगाये
- पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्ट करें
- खेत में चिडियों के बैठने के लिए अंग्रेजी शब्द ’’टी’’ के आकार की खुटिया लगायें।
3. जैविक नियंत्रण द्वारा ;-
- एन.पी.वी. 500 एल.ई./हे. $ यू.वी. रिटारडेन्ट 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत मिश्रण का शाम के समय छिडकाव करें।
- बेसिलस थूरेंजियन्सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्टर $ टिनोपाल 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करे।
4. जैव-पौध पदार्थों के छिडकाव द्वारा ;-
- निंबोली सत 5 प्रतिषत का छिडकाव करें
- नीम तेल या करंज तेल 10-15 मि.ली.$1 मि.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्डोविट, टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
- निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिषत या अचूक 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करें ।
5. रासायनिक नियंत्रण द्वारा ;-
- आवष्यकता पडने पर एवं अंतिम हथियार के रूप में ही कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें।
- फली मक्खी एवं फली के मत्कुण के नियंत्रण हेतु सर्वांगीण कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी. या प्रोपेनोफाॅस-50 के 1000 मिली. मात्रा 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।
- फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण हेतु - इण्डोक्सीकार्ब 14.5 ई.सी. 500 एम.एल. या क्वीनालफास 25 ई.सी. 1000 एम.एल. या ऐसीफेट 75 डब्लू.पी. 500 ग्राम को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर छिडकाव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतू प्रथम छिडकाव सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्ष या सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का छिडकाव करें। तीन छिडकाव में पहला फूल बनना प्रारंभ होने पर, दूसरा 50 प्रतिषत फूल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करने से सफल कीट नियंत्रण होता है।
कटाई एवं गहाई (Harvesting and mowing) :-
जब पौधे की पत्तियाँ खिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।
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