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    तिल की इस उत्पादन तकनीक से होगा किसानों का फायदा (Farmers will benefit from this sesame production technology)


    तिल की इस उत्पादन तकनीक से होगा किसानों का फायदा (Farmers will benefit from this sesame production technology),,

    उपयुक्त भूमि (Suitable land) ;-
    हल्की रेतीली, दोमट भूमि तिल की खेती हेतु उपयुक्त होती हैं। खेती हेतु भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए। भारी मिटटी में तिल को जल निकास की विशेष व्यवस्था के साथ उगाया जा सकताहै।

    तिल की बोनी मुख्यतः खरीफ मौसम में की जाती है जिसकी बोनी जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक करनी चाहिये। ग्रीष्मकालीन तिल की बोनी जनवरी माह के दूसरे पखवाडे से लेकर फरवरी माह के दूसरे पखवाडे तक करना चाहिए । बीज को 2 ग्राम थायरम+1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम , 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा. फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें। बोनी कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधो से पौधों की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करे ।

    अनुशंसित किस्मों का विवरण व अन्य विशेषतायें (Description and other features of recommended varieties) ;-



    किस्म
    विमोचन वर्श
     पकने की अवधि (दिवस)
    उपज(कि.ग्रा./हे.)
    तेल की मात्रा (प्रतिशत)
    अन्य विशेषतायें
    टी.के.जी. 308
    200880-85600-70048-50
    तना एवं जड सड़न रोग के लिये सहनशील।
    जे.टी-11
    (पी.के.डी.एस.-11)
    200882-85650-70046-50
    गहरे भूरे रंग का दाना होता है। मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील। गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त।
    जे.टी-12(पी.के.डी.एस.-12)
    200882-85650-70050-53
    सफेद रंग का दाना , मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील, गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त।
    जवाहर तिल 306200486-90700-90052.0
    पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी के लिए सहनशील ।
    जे.टी.एस. 8200086600-70052
    दाने का रंग सफेद, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील।
    टी.के.जी. 55199876-7863053
    सफेद बीज, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सड़न बीमारी के लिये सहनशील



    उर्वरक मात्रा, डालने का सही समय व तरीका (Fertilizer quantity, correct timing and method of application) :-


    उर्वरक मात्रा (कि.ग्राम./है.)
    नत्रजन - स्फुर - पोटाश
    सिंचित 60:40:20
    असिंचित/वर्षा आधारित 40:30:20
    स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बोनी करते समय आधार रूप में दें। तथा शेष नत्रजन की मात्रा खड़ी फसल में बोनी के 30-35 दिन बाद निंदाई करने उपरान्त खेत में पर्याप्त नमी हाने पर दे। स्फुर तत्व को सिंगल सुपर फास्फेट के माध्यम से देने पर गंधक तत्व की पूर्ति (20 से 30 कि.ग्रा./है. ) स्वयं हो जाती है।


    सिंचाई एवं जल प्रबंधन (Irrigation and Water Management) :-
    तिल की फसल खेत में जलभराव के प्रति संवेदनषील होती है। अतः खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित करें। खरीफ मौसम में लम्बे समय तक सूखा पड़ने एवं अवर्षा की स्थिति में सिंचाई के साधन होने पर सुरक्षात्मक सिंचाई अवष्य करे। फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये सिंचाई हेतु क्रान्तिक अवस्थाओं यथा फूल आते समय एवं फल्लियों में दाना भरने के समय सिंचाई करे।

    खरपतवार नियंत्रण (weed control) :-
    बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये । निंदा की तीव्रता को देखते हुये दूसरी निंदाई आवश्यकता होने पर बोनी के 30-35 दिन बाद नत्रजनयुक्त उर्वरकों का खडी फसल में छिडकाव करने क पूर्व करना चाहिये।



    रासायनिक विधी से खरपतवार नियंत्रण (Weed control by chemical method) :-
    उपयोग का समय / उपयोग करने की विधि
    • फ्लूक्लोरोलीन (बासालीन)1 ली./हैबुवाई के ठीक पहले मिट्टी में मिलायें।रसायन के छिडकाव के बाद मिट्टी में मिला दें।
    • पेन्डीमिथिलीन500-700 मि.ली./है.बुआई के तुरन्त बाद किन्तु अंकुरण के पहले500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे।3क्यूजोलोफाप इथाईल800 मि.ली./है.बुआई के 15 से 20दिन बाद500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे।

    रोग प्रबंधन (Disease management)
    रोग का नाम , लक्षण व नियंत्रण (disease name, symptoms and control) :-

    फाइटोफ्थोरा अंगमारी ,,-  प्रारंभ में पत्तियों व तनों पर जलसिक्त धब्बे दिखते हैं, जो पहले भूरे रंग के होकर बाद में काले रंग के हो जाते हैं।
    नियंत्रण ,,- थायरम अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी से बीजोपचार नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.)नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें। खड़ी फसल पर रोग दिखने पर रिडोमिल एम जेड (2.5 ग्रा./ली.) या कवच या कापर अक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतर से छिड़काव करें।

    भभूतिया रोग ,,-  45 दिन से फसल पकने तक इसका संक्रमण होता है। इस रोग में फसल की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता हैं
    नियंत्रण ,,- गंधकघुलनशील गंधक (2 ग्राम/लीटर) का छिड़काव करेरोग के लक्शण प्रकट होने पर घुलनशील गंधक (2 ग्राम/ लीटर) का खडी फसल में 10 दिन के अंतर पर 2-3 बार छिड़काव करे।

    तना एवं जड़ सड़न संक्रमण ,,-  पौधे की जड़ों का छिलका हटाने पर नीचे का रंग कोयले के समान घूसर काला दिखता हैं जो फफूंद के स्क्लेरोषियम होते है।
    नियंत्रण ,,- थायरम अथवा ट्राइकोडरमा विरिडीनियंत्रण हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी ( 5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें।
    खड़ी फसल पर रोग प्रारंभ होने पर थायरम 2 ग्राम+ कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम. इस तरह कुल 3 ग्राम मात्रा/ली. की दर से पानी मे घोल बनाकर पौधो की जड़ों को तर करें। एक सप्ताह पश्चात् पुनः छिडकाव दोहराये

    पर्णताभ रोग (फायलोडी) ,,- फूल आने के समय इसका संक्रमण दिखाई देता हैं । फूल के सभी भाग हरे पत्तियों समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधे में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी -छोटी दिखाई देती हैं।
    नियंत्रण ,,- फोरेटफोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयरनियंत्रण हेतु रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट करें तथा फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर के मान से खेत में पर्याप्त नमी होने पर मिलाये ताकि रोग फेलाने वाला कीट फुदका नियंत्रित हो जाये।नीम तेल (5मिली/ली.) या डायमेथोयेट (3 मिली/ली.) का खडी फसल में क्रमषः 30,40 और 60 दिन पर बोनी के बाद छिड़काव करे

    जीवाणु अंगमारी ,,- पत्तियों पर जल कण जैसे छोटे-छोटे बिखरे हुए धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर भूरे रंग के हो जाते हैं। यह बीमारी चार से छः पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती हैं।
    नियंत्रण ,,- स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 पी.पी.एम.) पत्तियों पर छिड़काव करें बीमारी नजर आते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 पी.पी.एम.) कॉपर आक्सी क्लोराईड (2.5 मि.ली./ली.) का पत्तियों पर 15 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें।

    निबौली का अर्क बनाने की विधि (Method of preparation of Nibouli extracts) :-
         निबौंली 5 प्रतिशत घोल के लिये एक एकड़ फसल हेतु 10 किलो निंबौली को कूटकर 20 लीटर पानी में गला दे तथा 24 घंटे तक गला रहने दे। तत्पश्चात् निंबौली को कपड़े अथवा दोनों हाथों के बीच अच्छी तरह दबाऐं ताकि निंबौली का सारा रस घोल में चला जाय। अवषेश को खेत में फेंक दे तथा घोल में इतना पानी डालें कि घोल 200 लीटर हो जायें। इसमें लगभग 100 मिली. ईजी या अन्य तरल साबुन मिलाकर डंडे से चलाये ताकि उसमें झाग आ जाये। तत्पश्चात् छिड़काव करें।

    कटाई गहाई एवं भडारण (Harvesting and storing) :-
           पौधो की फलियाँ पीली पडने लगे एवं पत्तियाँ झड़ना प्रारम्भ हो जाये तब कटाई करे। कटाई करने उपरान्त फसल के गट्ठे बाधकर खेत में अथवा खालिहान में खडे रखे। 8 से 10 दिन तक सुखाने के बाद लकड़ी के ड़न्डो से पीटकर तिरपाल पर झड़ाई करे। झडाई करने के बाद पंखे (हवा) से बीज को साफ करें तथा धूप में अच्छी तरह सूखा ले। बीजों में जब 8 प्रतिशत नमी हो तब भंडार पात्रों में /भंडारगृहों में भंडारित करें।
    संभावित उपज (Potential yield) :- उपरोक्तानुसार बताई गई उन्नत तकनीक अपनाते हुऐ काष्त करने एवं उचित वर्षा होने पर असिंचित अवस्था में उगायी गयी फसल से 4 से 5 क्वि. तथा सिंचित अवस्था में 6 से 8 क्वि./है. तक उपज प्राप्त होती है।
    आर्थिक आय (Economic income) :- व्यय एवं लाभ अनुपात उपरोक्तानुसार तिल की खेती करने पर लगभग 5 क्वि./ है. उपज प्राप्त होती है।
    जिसपर लागत -व्यय रु 16500/ है. के मान से आता है। सकल आर्थिक आय रु 30000 आती है। शुद्व आय रु 13500/है. के मान से प्राप्त हो कर लाभ आय-व्यय अनुपात 1.82 मिलता है।
           
     नोट :- अधिक उपज प्राप्त करने हेतु कीट एवं रोग रोधी उन्नत किस्मों का प्रयोग करे व अधिक जानकारी के लिए अपने निकटतम कृषि अधिकारी से समय समय पर सम्पर्क करें ,,

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