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    भारतीय किसान:- कर्ज़ माफी , राहत व फसल बीमा, न्यूनतम समर्थन मूल्य , जैसी योजनाओ के जाल में फसा



    March 16/2019

     देश के किसी ना किसी हिस्से में किसानो को आये दिन सडको पर आंदोलन करने के लिए उतरना पड रहा है। 


    देश के ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग 58% आबादी खेती पर निर्भर है। इतने बड़े तबके की अशांति देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है। देश में लगातार हो रहे ये आंदोलन एक गंभीर संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। हाल ही के समय में जाट, मराठा, पाटीदार जैसी कृषि आधारित मजबूत मानी जाने वाली जातियों के जातिगत आरक्षण के आंदोलन की जड़ें भी कहीं ना कहीं कृषि क्षेत्र में छाए संकट से ही संबंधित हैं। पिछले कई साल से ग्रामीण क्षेत्रों में खेती की मौजूदा स्थिति को लेकर एक खतरनाक आक्रोश पनप रहा है। अगर समय रहते समझकर इसका समाधान न किया गया तो पूरा देश एक भयंकर आंदोलन की चपेट में आ सकता है।

    खेती किसानी की इस दुर्दशा के मूल कारणों की पड़ताल करना जरूरी है। आखिर क्या वजह है कि आज खेती किसानी चहुं ओर से संकट में घिरी दिखाई दे रही है और किसान की स्थिति चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु जैसी नजर आ रही है।

    एक ज़माना था, जब हमारे देश में खेती को सबसे उत्तम कार्य माना जाता था। महाकवि घाघ की एक प्रसिद्ध कहावत थी:

    उत्तम खेती, मध्यम बान।

    निषिद्ध चाकरी, भीख निदान।

    अर्थात खेती सबसे अच्छा कार्य है। व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख मांगना सबसे बुरा कार्य है।
     लेकिन आज हम अपने देश की हालत पर नजर डालें तो आजीविका के लिए निश्चित रूप से खेती सबसे अच्छा कार्य नहीं रह गया है। हर दिन देश में लगभग 2000 किसान खेती छोड़ देते हैं और बहुत सारे किसान ऐसे हैं जो खेती छोड़ देना चाहते हैं। देश के किसी ना किसी हिस्से में किसानों को आए दिन सड़कों पर आंदोलन करने के लिए उतरना पड़ रहा है। देश में पिछले कई साल से हर साल हजारों किसान निराश होकर आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर हो गए हैं। देश में हर घंटे एक से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहा है।

    कभी छत्तीसगढ़ के किसान सड़क पर टमाटर फेंक देते हैं तो कभी कर्नाटक व देश के कई हिस्सों  में किसान प्याज सड़कों पर फेंकने पर मजबूर हो जाते हैं। हरियाणा से किसान को आलू 9 पैसे प्रति किलो बिकने की खबर आती है। तो महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश में फल सब्जिया व दूध सड़कों पर बहाकर किसान आंदोलन करते हैं। आज हमारे देश में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहां से किसान की दुर्दशा की खबरें न आती हों।

    आखिर किसानों की मूलभूत समस्याएं क्या हैं?


    देश के अलग हिस्सों में किसानों की समस्याएं अलग हो सकती हैं, लेकिन कुछ समस्याएं हैं जो सब किसानों के साथ है। कुछ मुख्य समस्या,

    फसलों की तेजी से बढ़ती लागत ,प्राइवेट कंपनियों के चक्रव्यूह में फंसा  किसान,


    गांव या जिला स्तर पर बीज, पेस्टिसाइड आदि की सरकारी व्यवस्था समुचित न होने के चलते किसान इन सबके लिए ज्यादातर प्राइवेट कंपनियों के उत्पादों पर ही निर्भर रहता है। उच्च गुणवत्तायुक्त बीज सही दामों में किसान को उपलब्ध हो पाना एक बड़ी चुनौती रहती है। महंगे बिकने वाले पेस्टिसाइड से कीटों पर नियंत्रण होता है, फसलों की उत्पादकता बढ़ जाती है। पर जैविक या प्राकृतिक खेती की अपेक्षा ये रासायनिक खेती किसान का खर्चा बढ़ाने के साथ मिट्टी की उर्वरक क्षमता, पर्यावरण, विलुप्त होती प्रजाति , किसान व् उपभोक्ता के स्वास्थय की दृष्टि से बहुत घातक सिद्ध होते हैं। एक बार इनका प्रयोग करने पर, जमीन इनकी आदी बन जाती है, फिर इनको बार-बार इस्तेमाल करना पड़ता है। इनकी कीमत पर सरकार का नियंत्रण न होने के चलते, किसान इनको बहुत महंगे दामों पर खरीदने को मजबूर रहता है। इन सब के लिए किसानों की बाजार पर निर्भरता खेती की लागत को बहुत ज्यादा बढ़ा रही है। 51 से ज्यादा ऐसे पेस्टिसाइड हैं जो दुनिया के बाकी देशों में प्रतिबंधित है पर भारत सरकार ने उनको हमारे देश में अब भी प्रयोग करने की इजाजत दी हुई है। किसानो में भी दिल, कैंसर व अन्य बीमारिया अब आम हो गई हैं।

    मजदूरी की लागत का बढ़ना ,

    खेतों में काम के लिए मजदूरों का मिलना एक बड़ी समस्या बन गई है। एकल परिवार होने के चलते अब छोटे किसानों को भी मजदूरों की आवश्यकता पड़ती है। मनरेगा के चलते मजदूरी की दर भी बढ़ गई है। इस कारण खेती में आने वाली लागत काफी बढ़ गई है।

    खेत की जोत का छोटा होते जाना , 

    कई अन्य कारणों के अलावा, परिवारों में बंटवारे के चलते भी पीढ़ी दर पीढ़ी खेती की जोत का आकार घटता जा रहा है। देश के लगभग 85% किसान परिवारों के पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है। इससे भी प्रति एकड़ खेती की लागत बढ़ जाती है।

    कभी ना ख़त्म होने वाला कर्ज का जाल: एक बार किसान कर्ज के चंगुल में फंसता है तो फिर बाहर निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है। विशेषकर वे किसान जो साहूकारों से बहुत ही ऊंची ब्याज दर (36%-120% प्रति वर्ष) पर ब्याज लेते हैं। किसानों की आत्महत्या में ना चुकाया जाने वाला बैंकों व साहूकारों का कर्ज एक बहुत महत्वपूर्ण कारण बनता है।

    मौसम की मार से बचाने में निष्प्रभावी राहत राशि व फसल बीमा ,


    बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि, बाढ़, सूखा, चक्रवात आदि से फसलों के नुकसान की स्थिति में किसानों को तत्काल व समुचित राहत पहुंचाने में हमारे देश का तंत्र व व्यवस्था प्रभावी साबित नहीं हो पाई है। ऐसा सीएसई के एक अध्ययन में भी सामने आया है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसी महत्वाकांक्षी योजना भी अपने मौजूदा स्वरूप में किसानों का भरोसा नहीं जीत सकती। कई सुधारों के साथ इसमें व्यक्तिगत स्तर पर फसल बीमा लाभ देना पड़ेगा।

    फसल के दाम में भारी अनिश्चितता ,


    पिछले कई सालों से खेती करने की लागत जिस तेजी से बढ़ती जा रही है। उस अनुपात में किसानों को मिलने वाले फसलों के दाम बहुत ही कम बढ़े हैं। सरकार की हरसंभव कोशिश रहती है कि फसलों के दाम कम से कम रहें, जिससे मंहगाई काबू में रहे। लेकिन सरकार उसी अनुपात में फसलों को उपजाने में आने वाली लागत को कम नहीं कर पाती। इससे किसान बीच में पिस जाता है और देश की जनता को सस्ते में खाना उपलब्ध कराने की सारी जिम्मेदारी एक किसान के कंधों पर डाल दी जाती है। इसका परिणाम हम सब किसान पर कभी ना ख़त्म होने वाले बढ़ते कर्जे के रूप में देखते हैं।

    अनेक उदाहरण ऐसे हैं जिसमें किसान को फसल मूल्य के रूप में अपनी वास्तविक लागत का आधा या चौथाई भी वसूल नहीं हो पाता या किसान को कौड़ी के भाव अपने फसल उत्पाद फेंकने पड़ जाते है। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं कि उपभोक्ता को फसल उत्पाद सस्ते में मिल जाते हैं। असल में किसान के खेत से लेकर आपकी प्लेट में आने तक की प्रक्रिया में फसल उत्पाद कई बिचौलियों और व्यापारियों के हाथो में से होकर आती है। बिचौलिए का काम ही होता है किसान से सस्ते से सस्ते दाम में खरीद कर महंगे से महंगे दाम में आगे बेचना। इस पूरी प्रक्रिया में ज्यादातर असली मुनाफा बिचौलिए खा जाते है और किसान व उपभोक्ता दोनों ठगे से रह जाते हैं। किसी फसल उत्पाद के लिए उपभोक्ता जो मूल्य देता है, उसका बहुत ही कम हिस्सा किसान को मिल पाता है। बाजार मूल्य का कभी कभी तो 20 से 30% तक का हिस्सा ही किसान तक पहुंचता है। जबकि को-ऑपरेटिव मॉडल से किसान को बाजार मूल्य का औसतन 70% तक आराम से मिल जाता है। हालांकि अलग-अलग फसल, फलों के लिए अलग अलग राज्यों में ये अलग हो सकते हैं।

    फसलों के मूल्य निर्धारण के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान है पर कई बार खुद सरकार द्धारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य ही किसान की लागत से भी कम घोषित किया जाता है। , और किसान को लगभग हर फसल में नुकसान उठाना पड़ा।

    इसका सीधा सीधा मतलब ये हुआ कि आज एक किसान कर्जा लेकर हमारी प्लेट में आने वाले खाने को सब्सिडी दे रहा है, जिससे की मुझे और आपको सस्ता खाना उपलब्ध हो पा रहा है। इससे सरकारों का महंगाई को नियंत्रण में रखने का  उद्देशय पूरा हो जाता है, क्यूंकि प्याज जैसी अन्य चीजों के दाम बढ़ने से तो यहां सरकार तक गिर जाती है। हालांकि वास्तविकता ये है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य भी असल में सिर्फ गिने चुने कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा  आदि और वो भी सिर्फ कुछ फसलों जैसे गेहूं, चावल आदि के लिए ही सही तरह से जमीनी स्तर पर लागू हो पाता है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के अनुसार देश में सिर्फ 6% के करीब किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ ले पाते और बाकी के 94% किसान बिना किसी न्यूनतम समर्थन मूल्य के ही फसल उत्पाद बेचते हैं।

    इसके साथ ही विदेश से आयात-निर्यात के निर्णयों से भी फसलों के मूल्य पर बहुत ज्यादा फर्क पड़ता है। किसान की स्थिति ये है कि अगर खराब उत्पादन होता है तो भी किसान का नुक्सान होता है, अगर ज्यादा उत्पादन हो जाता है तो फसलों के दाम गिर जाते हैं, और तब भी किसान घाटे में रहता है। जैसे की हमने देखा, इस बार सरकार ने देश में अच्छा गेहूं उत्पादन होने के अनुमान के बावजूद भी गेहूं पर आयात शुल्क 25% से घटाकर 0% कर दिया था। जिससे प्राइवेट ट्रेडर लॉबी द्वारा बाहर से गेहूं आयात कर लिया गया और देश के किसान को गेहूं की फसल का एक अच्छा दाम मिलने से रह गया। ऐसी स्थिति में जब सरकार की नीतियां ही ऐसी स्थिति पैदा करे तो किसान मुनाफा कैसे कमाए। अभी तक की सभी सरकारें एक ऐसी अच्छी सप्लाई चेन व्यवस्था विकसित करने में विफल हो गयी हैं, जिस से किसान तथा उपभोक्ता दोनों को लुटने से बचाया जा सके। देश की खाद्य सुरक्षा व खाद्य संप्रुभता के इतने महत्वपूर्ण व संवेदनशील मुद्दे को लेकर आखिर सरकार एक गंभीर प्रयास युद्धस्तर पर क्यों नहीं कर सकती?

    ऐसी परिस्थितियों में क्या सिर्फ कर्ज माफ़ी से निकलेगा समाधान ?

    मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र व अन्य राज्यों में कुछ किसानों की कर्ज माफ़ी की घोषणा तात्कालिक राहत तो दे सकती है पर ये समाधान नहीं है। जब तक किसानों की वास्तविक मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं किया जाएगा, ये संकट बार-बार आता रहेगा।

    देश में  छाए इस गंभीर कृषि संकट के परिपेक्ष्य में निम्न बिन्दुओं पर गंभीरता से समाधान ढूंढने की आवश्यकता है:

    1. किसानों की एक न्यूनतम आय सुनिश्चित किये जाने के बारे में

    2. किसानों के लिए न्यायोचित व् लाभप्रद समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के बारे में

    3. क्षेत्रीय स्तर पर किसान को सीधे उपभोक्ता से जोड़ने के प्रयास के बारे में

    4. जैविक, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देकर एक टिकाऊ खेती के बारे में

    5. खेती के लिए उपयुक्त बीज, खाद, पेस्टिसाइड आदि तथा अन्य नवीन तकनीकियों की उपलब्धता के बारे में

    6. किसान खेत स्कूल विकसित किये जाने तथा प्रभावी कृषि विस्तार सेवाओं के किसान तक पहुंचने बारे में

    7. लघु, सीमान्त व् किराए पर जमीन लेकर खेती करने वाले किसानों के लिए भी बैंकों से आसान कर्ज उपलब्ध करवाने के बारे में

    8. जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर मौसम आधारित पूर्वानुमान जानकारियां, उपयोग करने लायक कृषि सलाह, जलवायु अनुकूलन बीज आदि किसानों तक पहुंचाने के बारे में

    9. फसल की क्षति होने पर समुचित राहत व बीमा लाभ किसानों तक पहुंचाने में


    इस संकट को सिर्फ किसानों के संकट के तौर पर ही न देखकर एक विस्तृत परिपेक्ष्य मे देखे जाने की जरूरत है। क्यूंकि अगर देश का एक किसान हार जाता है तो ये देश की भी हार है। भारत जैसे एक कृषिप्रधान देश की समृद्धि का रास्ता गांव के खेत खलिहानों की समृद्धि से होकर ही जाएगा।
    (  This is blogger's idea )

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