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    गेहूँ की खेती की अधिक पैदावार , भूमि सुधार , कीट नियंत्रण व रोग से बचाव के लिए पड़े , ये ब्लॉग आप के लिए ही है ,



    गेहूं (Wheat) वैज्ञानिक नाम :- ट्रिटिकम एस्टीवम (Triticum  Estivam) , मध्य पूर्व के लेवांत क्षेत्र से आई एक घास है जिसकी खेती दुनिया भर में की जाती है। विश्व भर में, भोजन के लिए उगाई जाने वाली धान्य फसलों मे मक्का के बाद गेहूं दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाले फसल है, धान का स्थान गेहूं के ठीक बाद तीसरे स्थान पर आता है। गेहूं के दानों को पीस कर प्राप्त हुआ आटा रोटी, डबलरोटी (ब्रेड), कुकीज, केक, दलिया, पास्ता, रस, सिवईं, नूडल्स आदि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। गेहूं का किण्वन कर बियर , शराब, वोद्का और जैवईंधन  बनाया जाता है। गेहूं की एक सीमित मात्रा मे पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है और इसके भूसे को पशुओं के चारे या छत/छप्पर के लिए निर्माण सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
    गेहूँ के प्रमुख उत्पादक देश (Major producers of wheat) :-
    गेहूँ की खेती विश्व के प्रायः हर भाग में होती है । संसार की कुल 23 प्रतिशत भूमि पर गेहूँ की खेती की जाती है । गेहूँ विश्वव्यापी महत्त्व की फसल है। मुख्य रूप से एशिया में धान की खेती की जाती है, तो भी विश्व के सभी प्रायद्वीपों में गेहूँ उगाया जाता है। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेहूँ उगाने वाले प्रमुख तीन  राष्ट्र भारत, रशियन फैडरेशन और  संयुक्त राज्य अमेरिका है । गेहूँ उत्पादन में चीन के बाद भारत तथा अमेरिका का क्रम आता है ।
    भारत में गेहूँ एक मुख्य फसल है। गेहूँ का लगभग 97% क्षेत्र सिंचित है। गेहूँ का प्रयोग मनुष्य अपने जीवनयापन हेतु मुख्यत रोटी के रूप में प्रयोग करते हैं, जिसमे प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। भारत में पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश मुख्य फसल उत्पादक क्षेत्र हैं।

    प्रमुख उन्नत प्रजातियाँ (Major Advanced Species) :-
    गेहूँ की प्रजातियों का चुनाव भूमि एवं साधनों की दशा एवं स्थित के अनुसार किया जाता है, मुख्यतः तीन प्रकार की प्रजातिया होती है सिंचित दशा वाली, असिंचित दशा वाली एवं उसरीली भूमि की, आसिंचित दशा वाली प्रजातियाँ निम्न हैं-
    1. असिंचित स्तिथि 
    • इसमें मगहर के 8027, इंद्रा के 8962, गोमती के 9465, के 9644, मन्दाकिनी के 9251, एवं एच डी आर 77 आदि हैं।
    2. सिंचित स्तिथि
    सिंचित दशा वाली प्रजातियाँ सिंचित दशा में दो प्रकार की प्रजातियाँ पायी जाती हैं,
    • समय से बुवाई के लिए-- इसमें देवा के 9107, एच पी 1731, राजश्य लक्ष्मी, नरेन्द्र गेहूँ1012, उजियार के 9006, डी एल 784-3, (वैशाली) भी कहतें हैं, एचयूडब्लू468, एचयूडब्लू510, एच डी2888, एच डी2967, यूपी 2382, पी बी डब्लू443, पी बी डब्लू 343, एच डी 2824 आदि हैं। 
    • देर से बुवाई के लिए -- त्रिवेणी के 8020, सोनाली एच पी 1633 एच डी 2643, गंगा, डी वी डब्लू 14, के 9162, के 9533, एचपी 1744, नरेन्द्र गेहूँ1014, नरेन्द्र गेहूँ 2036, नरेन्द्र गेहूँ1076, यूपी 2425, के 9423, के 9903, एच डब्लू2045,पी बी डब्लू373,पी बी डब्लू 16 आदि हैं।
    3. उसरीली भूमि के लिए
    • के आर एल 1-4, के आर एल 19, लोक 1, प्रसाद के 8434, एन डब्लू 1067, आदि हैं, उपर्युक्त प्रजातियाँ अपने खेत एवं दशा को समझकर चयन करना चाहिए।

    जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता (Climate and land requirement) :-
    उपयुक्त जलवायु: गेहूँ मुख्यतः एक ठण्डी एवं शुष्क  जलवायु की फसल है अतः फसल बोने के समय 20 से 22  डिग्री सेल्सियस , बढ़वार के समय इष्टतम ताप 25 डिग्री सेल्सियस  तथा पकने के समय  14 से 15 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उत्तम  रहता है। तापमान  से अधिक होने पर फसल जल्दी पाक जाती है और उपज घट जाती है। पाले से फसल का  बहुत नुकसान होता है । बाली लगने के समय पाला  पड़ने पर बीज अंकुरण शक्ति खो  देते है और  उसका विकास रूक जाता है. इसकी खेती के लिए 60-100 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। पौधों की वृद्धि के लिए  वातावरण में 50-60 प्रतिशत आर्द्रता उपयुक्त पाई गई है। ठण्डा शीतकाल तथा गर्म ग्रीष्मकाल गेंहूँ की बेहतर फसल के लिए उपयुक्त माना जाता है । गर्म एवं नम  जलवायु गेहूँ के लिए उचित नहीं होती, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में फसल में रोग अधिक लगते है।
    गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती है। साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की भूमि में गेहूँ की खेती की जा सकती है।


    खेत की तैयारी (Farm preparation) :-
    गेहूँ की बुवाई अधिकतर धान की फसल के बाद ही की जाती है, पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से तथा बाद में डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताईयां करके खेत को समतल करते हुए भुरभुरा बना लेना चाहिए, डिस्क हैरो से धान के ढूंठे कट कर छोटे छोटे टुकड़ों में हो जाते हैं: इन्हें शीघ्र सड़ाने के लिए 20-25 कि०ग्रा० यूरिया प्रति हैक्टर कि दर से पहली जुताई में अवश्य दे देनी चाहिए। इससे ढूंठे, जड़ें सड़ जाती हैं ट्रैक्टर चालित रोटावेटर से एक ही जुताई द्वारा खेत पूर्ण रूप से तलैयार हो जाता है।

    बीजदर और बीज शोधन (Bidder and Seed Treatment) :-
    गेहूँकि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा छिड़काव से बुवाई कि दशा से 125 कि०ग्रा० सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं, बुवाई के पहले बीजशोधन अवश्य करना चाहिए बीजशोधन के लिए बाविस्टिन, काबेन्डाजिम कि 2 ग्राम मात्रा प्रति कि०ग्रा० कि दर से बीज शोधित करके ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।

    बुवाई की विधि (Sowing method) :-
    गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता है वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती है, गेहूँ की बुवाई सीड्रिल से करनी चाहिए तथा गेहूँ की बुवाई हमेशा लाइन में करें। सयुंक्त प्रजातियों की बुवाई अक्तूबर के प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष तक उपयुक्त नमी में बुवाई करनी चाहिए, अब आता है सिंचित दशा इसमे की चार पानी देने वाली हैं समय से अर्थात 15-25 नवम्बर, सिंचित दशा में ही तीन पानी वाली प्रजातियों के लिए 15 नवंबर से 10 दिसंबर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए और सिंचित दशा में जो देर से बुवाई करने वाली प्रजातियाँ हैं वो 15-25 दिसम्बर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए, उसरीली भूमि में जिन प्रजातियों की बुवाई की जाती है वे 15 अक्टूबर के आस पास उचित नमी में बुवाई अवश्य कर देना चाहिए, अब आता है किस विधि से बुवाई करें गेहूँ की बुवाई देशी हल के पीछे लाइनों में करनी चाहिए या फर्टीसीड्रिल से भूमि में उचित नमी पर करना लाभदायक है, पंतनगर सीड्रिल बीज व खाद सीड्रिल से बुवाई करना अत्यंत लाभदायक है।

    उर्वरकों का प्रयोग (Use of fertilizers) :-
    किसान भाइयों उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 150 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश, अच्छी उपज के लिए 60 कुंतल प्रति हैक्टर सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। गोबर की खाद एवं आधी नत्रजन की मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिरी जुताई में या बुवाई के समय खाद का प्रयोग करना चाहिए, शेष नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई पर तथा बची शेष मात्रा दूसरी सिंचाई पर प्रयोग करनी चाहिए।

    गेहूँ की फसल में खरपतवार नियंत्रण (Weed control in wheat crop) :-
    गेहूँ की फसल में रबी के सभी खरपतवार जैसे बथुआ, प्याजी, खरतुआ, हिरनखुरी, चटरी, मटरी, सैंजी, अंकरा, कृष्णनील, गेहुंसा, तथा जंगली जई आदि खरपतवार लगते हैं। इनकी रोकथाम निराई गुड़ाई करके की जा सकती है, लेकिन कुछ रसायनों का प्रयोग करके रोकथाम किया जा सकता है जो की निम्न है जैसे की पेंडामेथेलिन 30 ई सी 3.3 लीटर की मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिलकर फ़्लैटफैन नोजिल से प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव बुवाई के बाद 1-2 दिन तक करना चाहिए। जिससे की जमाव खरपतवारों का न हो सके, चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं पहली सिंचाई के एक सप्ताह बाद 24डी सोडियम साल्ट 80% डब्लू पी. की मात्रा 625 ग्राम 600-800 लीटर पानी में मिलकर 35-40 दिन बाद बुवाई के फ़्लैटफैन नीजिल से छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद जहाँ पर चौड़ी एवं संकरी पत्ती दोनों ही खरपतवार हों वहां पर सल्फोसल्फ्युरान 75% 32 ऍम. एल. प्रति हैक्टर इसके साथ ही मेटासल्फ्युरान मिथाइल 5 ग्राम डब्लू जी. 40 ग्राम प्रति हैक्टर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए, इससे खरपतवार नहीं उगते हैं या उगते हैं तो नष्ट हो जाते हैं।

    गेहूँ की फसल में रोग और उनका नियंत्रण (Diseases and Controls in Wheat Crops) :-
    खड़ी फसल में बहुत से रोग लगते हैं,जैसे अल्टरनेरिया, गेरुई या रतुआ एवं ब्लाइट का प्रकोप होता है जिससे भारी नुकसान हो जाता है इसमे निम्न प्रकार के रोग और लगते हैं जैसे काली गेरुई, भूरी गेरुई, पीली गेरुई सेंहू, कण्डुआ, स्टाम्प ब्लाच, करनालबंट इसमें मुख्य रूप से झुलसा रोग लगता है पत्तियों पर कुछ पीले भूरे रंग के लिए हुए धब्बे दिखाई देते हैं, ये बाद में किनारे पर कत्थई भूरे रंग के तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं: इनकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से या प्रापिकोनाजोल 25 % ई सी. की आधा लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए, इसमे गेरुई या रतुआ मुख्य रूप से लगता है,गेरुई भूरे पीले या काले रंग के, काली गेरुई पत्ती तथा तना दोनों में लगती है इसकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० या जिनेब 25% ई सी. आधा लीटर, 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए। यदि झुलसा, रतुआ, कर्नालबंट तीनो रोगों की संका हो तो प्रोपिकोनाजोल का छिड़काव करना अति आवश्यक है।


    गेहूँ की फसल में कीट और उनका नियंत्रण (Pest and control of wheat crop) :-
    गेहू की फसल में बहुत से रोग, कीट, लगते है जिनमे से कुछ रोग व कीट , एवं रोकथाम निम्नलिखित है
    1. दीमक (Termite)
    गेहूँ की फसल में शुरू में दीमक कीट बहुत ही नुकसान पहुंचता है इसकी रोकथाम के लिए दीमक प्रकोपित क्षेत्र में नीम की खली १० कुंतल प्रति हैक्टर की दर से खेत की तैयारी के समय प्रयोग करना चाहिए तथा पूर्व में बोई गई फसल के अवशेष को नष्ट करना अति आवश्यक है,
    2. माहू (Mahu)
    इसके साथ ही माहू भी गेहूँ की फसल में लगती है, ये पत्तियों तथा बालियों का रस चूसते हैं, ये पंखहीन तथा पंखयुक्त हरे रंग के होते हैं, सैनिक कीट भी लगता है पूर्ण विकसित सुंडी लगभग 40 मि०मी० लम्बी बादामी रंग की होती है। यह पत्तियों को खाकर हानि पहुंचाती है, इसके साथ साथ गुलाबी तना बेधक कीट लगता है ये अण्डो से निकलने वाली सुंडी भूरे गुलाबी रंग की लगभग 5 मिली मीटर की लम्बी होती है, इसके काटने से फल की वानस्पतिक बढ़वार रुक जाती है, इन सभी कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी जैसे क्यूनालफास 25 ई सी. की 1.5-2.0 लीटर मात्रा 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए, या सैपरमेथ्रिन 750 मी०ली० या फेंवेलेरेट 1 लीटर 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
    3. चूहे (Rat)
    कीटों के साथ साथ चूहे भी लगते हैं  जो गेहू की फसल के लिए बहुत हानि कारक है ।, ये खड़ी फसल में 25% तक नुकसान पहुँचाते हैं, चूहों के लिए जिंक फास्फाइट या बेरियम कार्बोनेट के बने जहरीले चारे का प्रयोग करना चाहिए, इसमे जहरीला चारा बनाने के लिए 1 भाग दवा 1 भाग सरसों का तेल तथा 48 भाग दाना मिलाकर बनाया जाता है जो कि खेत में रखकर प्रयोग करते हैं।

    कटाई (Harvesting)

    फसल पकते ही बिना प्रतीक्षा किये हुए कटाई करके तुरंत ही मड़ाई कर दाना निकाल लेना चाहिए, और भूसा व दाना यथा स्थान पर रखना चाहिए, अत्यधिक क्षेत्री वाली फसल कि कटाई कम्बाईन से करनी चाहिए इसमे कटाई व मड़ाई एक साथ ही जाती है जब कम्बाईन से कटाई कि जाती है।

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