मक्का किसानों के लिए फयदे की फसल :- मक्का की उन्नत किस्म , कीट नियंत्रण , रोग व उपचार
मक्का (maize), एक प्रमुख खाद्य फसल हैं, जो मोटे अनाजो की श्रेणी में आता है। इसे भुट्टे की शक्ल में भी खाया जाता है।
मक्का (Maize) विश्व में उगाई जाने वाली फसल है। मक्का (Maize) को खरीफ की फसल कहा जाता है, लेकिन बहुत से क्षेत्रों में इसको रवि के समय भी उगाया जाता है। साथ ही साथ यह पशुओं का भी प्रमुख आहर है।
भारत के अधिकांश मैदानी भागों से लेकर 2700 मीटर उँचाई वाले पहाडी क्षेत्रो तक मक्का सफलतापूर्वक उगाया जाता है। इसे सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा बलुई, दोमट मिट्टी मक्का की खेती के लिये बेहतर समझी जाती है।
प्रमुख मक्का उत्पादक राज्यों में आंध्र प्रदेश (20.9%), कर्नाटक (16.5%), राजस्थान (9.9%), महाराष्ट्र (9.1%), बिहार (8.9%), उत्तर प्रदेश हैं (6.1%), मध्य प्रदेश (5.7%), हिमाचल प्रदेश (4.4%),जो कुल मक्कार उत्पादन का 80% से अधिक योगदान करते हैं. इन राज्यों के अलावा जम्मू और कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में भी मक्का उगाया जाता है.
अन्य फसलों की तुलना मे मक्का (Maize) अल्प समय में पकने और अधिक पैदावार देने वाली फसल है। अगर किसान भाई थोड़े से ध्यान से और आज की तकनीकी के अनुसार खेती करे, तो इस फसल की अधिक पैदावार से अच्छा मुनाफा ले सकते है ।
इसके गुण इस प्रकार है, कार्बोहाइड्रेट 70, प्रोटीन 10 और तेल 4 प्रतिशत पाया जाता है। ये सब तत्व मानव शरीर के लिए बहुत ही आवश्यक है।
इसके गुणकारी होने के कारण पहले की तुलना में आज के समय इसका उपयोग मानव आहर के रूप में ज्यादा होता है ।
चपाती के रूप मे, भुट्टे सेंककर, मधु मक्का को उबालकर कॉर्नफलेक्स, पॉपकार्न, लइया के रूप मे आदि के साथ-साथ अब मक्का का उपयोग कार्ड आइल, बायोफयूल के लिए भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का उपयोग मुर्गी एवं पशु आहार के रूप मे किया जाता है। साथ ही साथ इससे पौष्टिक रूचिकर चारा प्राप्त होता है। भुट्टे काटने के बाद बची हुई कडवी पशुओं को चारे के रूप मे खिलाते हैं। औद्योगिक दृष्टि से मक्का मे प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट पेन्ट्स स्याही लोशन स्टार्च कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने लगा है। बेबीकार्न मक्का से प्राप्त होने वाले बिना परागित भुट्टों को ही कहा जाता है। बेबीकार्न का पौष्टिक मूल्य अन्य सब्जियों से अधिक है।
आईये आज हम आप को बताते है कि मक्का की खेती कैसे करनी चाहिए, ओर क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए । अगर आप चीजों का ध्यान रखें तो बहुत लाभ कमा सकते है ।
मक्का की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जा सकती है, परन्तु उष्ण क्षेत्रों में मक्का की वृद्धि, विकास एवं उपज अधिक पाई जाती है। यह गर्म ऋतु की फसल है। इसके जमाव के लिए रात और दिन का तापमान ज्यादा होना चाहिए। मक्के की फसल को शुरुआत के दिनों से भूमि में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। जमाव के लिए 18 से 23 डिग्री सेल्सियस तापमान एवं वृद्धि व विकास अवस्था में 28 डिग्री सेल्सियस तापमान उत्तम माना गया है।
उपयुक्त भूमि (Suitable land) :-
मक्का की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है।परंतु मक्का की अच्छी बढ़वार और उत्पादकता के लिए दोमट एवं मध्यम से भारी मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में जीवांश और उचित जल निकास का प्रबंध हो, उपयुक्त रहती है। लवणीय तथा क्षारीय भूमियां मक्का की खेती के लिए उपयुक्त नहीं रहती।
भूमि की तैयारी (Preparation of land) :-
पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें । उसके बाद 2 से 3 जुलाई हैरो या देसी हल से करें, मिट्टी के ढेले तोड़ने एवं खेत सीधा करने हेतु हर जुताई के बाद पाटा या सुहागा लगाएँ । यदि मिट्टी में नमी कम हो तो पलेवा करके जुताई करनी चाहिए । गोबर के खाद काप्रयोग करना हो तो पूर्ण रूप से सड़ी हुई खाद अन्तिम जुताई के समय जमीन मे मिला दें। सिंचित अवस्था में 60 सेंटीमीटर की दूरी पर मेड़े बनानी चाहिए जिससे जल निकासी में आसानी रहती है और फसल भी अच्छी बढ़ती है ।
बुवाई का समय (Time of sowing) :-
1. मुख्य फसल के लिए बुवाई मई के अंत तक करें।
2. शरदकालीन मक्का की बुवाई अक्टूबर अंत से नवंबर तक करें।
3. बसंत ऋतु में मक्का की बुवाई हेतु सही समय जनवरी के तीसरे सप्ताह में मध्य फरवरी तक है।
4. बुवाई में देरी करने से अधिक तापमान तथा कम नमी के कारण बीज कम बनता है।
5. यदि बारिश न होने के कारण बुवाई में देरी हो जाए तो फलीदर फसलों की अंतर फसल लगाएं।
मक्का की उन्नत किस्में (Improved varieties of maize) :-
- अति शीघ्र पकने वाली किस्में (75 दिन से कम)- जवाहर मक्का- 8, विवेक- 4, विवेक- 17 विवेक- 43 विवेक- 42 और प्रताप हाइब्रिड मक्का- 1 आदि प्रमुख है।
- शीघ्र पकने वाली किस्में (85 दिन से कम)- जवाहर मक्का- 12, अमर, आजाद कमल, पंत संकुल मक्का- 3, चन्द्रमणी, प्रताप- 3, विकास मक्का- 421, हिम- 129, डीएचएम- 107, डीएचएम- 109 पूसा अरली हाइब्रिड मक्का- 1, पूसा अली हाइब्रिड मक्का- 2, प्रकाश, पी एम एच- 5, प्रा– 368, एक्स- 3342, डीके सी- 7074, जेकेएमएच- 175 और हाईशेल व बायो- 9637 आदि प्रमुख है।
- मध्यम अवधि में पकने वाली किस्में (95 दिन से कम)- जवाहर मक्का- 216, एचएम- 10, एचएम- 4, प्रताप- 5, पी- 3441, एनके- 21, केएमएच- 3426, केएमएच- 3712 एनएमएच- 803 और बिस्को – 2418 आदि मुख्य है।
- देरी की अवधि में पकने वाली (95 दिन से अधिक)- गंगा- 11 त्रिसुलता, डेक्कन- 101, डेक्कन- 103 डेक्कन- 105, एचएम- 11, एलक्यूपीएम- 4, सरताज, प्रो- 311, बायो- 9681,सीड टैक- 2324, बिस्को- 855, एनके- 6240 और एसएमएच- 3904 आदि प्रमुख है।
विशिष्ट मक्का की किस्में (Specific varieties of maize) :-
- बेबीकॉर्न - वी एल- 78, पी ई एच एम- 2, पी ई एच एम- 5 और वी एल बेबी कॉर्न- 1आदि।
- पॉपकॉर्न- अम्बर पॉप, वी एल अम्बर पॉप और पर्ल पॉप आदि।
- स्वीट कॉर्न- माधुरी, प्रिया, विन ओरेंज और एस सी एच- 1 आदि ।
- उच्च प्रोटीन मक्का- एच क्यू पी एम- 1, 5 व 7, शक्तिमान 1, 2, 3 व 4 और विवेक क्यू पी एम- 9 आदि।
- पशु चारा किस्मे- जे- 1006, प्रताप चरी- 6 और अफ्रीकन टाल इत्यादि है।
- सामान्य अवधि वाली- चंदन मक्का-1
- जल्दी पकने वाली- चंदन मक्का-3
- अत्यंत जल्दी पकने वाली- चंदन सफेद मक्का-2
- संकर जातियां - 12 से 15 किलो/हे.
- कम्पोजिट जातियां - 15 से 20 किलो/हे.
- हरे चारे के लिए - 40 से 45 किलो/हे.
उपज प्रति क्विंटल/हेक्टेयर (Yield per quintal / Hectare) :-
- शीघ्र पकने वाली 50-60 क्विंटल/हेक्टेयर
- मध्यम पकने वाली 60-65 क्विंटल/हेक्टेयर
- देरी से पकने वाली 65-70 क्विंटल/हेक्टेयर
बीज को बोने से पूर्व किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जी.एन. 2.5-3 ग्रा./कि. बीज का दर से उपचारीत करके बोना चाहिए। एजोस्पाइरिलम या पी.एस.बी.कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करें।
पौध दूरी (Plant distance) :-
- शीघ्र पकने वाली:- कतार से कतार 60 से.मी. पौधे से पौधे-20 से.मी.
- मध्यम/देरी से पकने वाली :- कतार से कतार 75 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
- हरे चारे के लिए :- कतार से कतार 40 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
वर्षा प्रारंभ होने पर मक्का बोना चाहिए। सिंचाई का साधन हो तो 10 से 15 दिन पूर्व ही बोनी करनी चाहिये इससे पैदावार मे वृध्दि होती है। बीज की बुवाई मेंड़ के किनारे व उपर 3-5 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई के एक माह पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना चाहिए। बुवाई किसी भी विधी से की जाय परन्तु खेत मे पौधों की संख्या 55-80 हजार/हेक्टेयर रखना चाहिए।
जैविक खाद व जैव उर्वरक (Organic Manure & Organic Fertilizers) :-
- हर 1 से 2 साल में मिट्टी परीक्षण करवाना चाहिए । इससे मिट्टी में पोषक तत्वों का पता चलता है । जिससे खाद का सही उपयोग किया जा सकता है ।
- बुवाई से 10 से 15 दिन पहले 6 से 8 टन प्रति एकड़ गोबर खाद या 3 से 4 कुंतल प्रति एकड़ केंचुआ खाद डालें ।
- मिट्टी जनित रोगों को रोकने के लिए ट्राइकोडर्मा व सूडोमोनास (प्रत्येक 1 से 2 किलोग्राम प्रति एकड़) 50 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बिखरेकर मिट्टी में मिलाएं ।
- बुआई से पहले प्रति एकड़ 75 किलोग्राम डी ए पी, 50 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 10 किलो जिंक सल्फेट और 12 से 15 किलो बेंटोनाईट सल्फर डालें ।
- बुआई के बाद पहली बार-बुआई से 20 दिन बाद 50 किलोग्राम यूरिया, दूसरी बार 35 से 40 दिनों में 50 किलोग्राम यूरिया डालें, तीसरी बार 50 किलोग्राम यूरिया +25 किलोग्राम एम ओ पी प्रति एकड़ भुट्टे रेशे निकलते समय डालें ।
- शीघ्र पकने वाली - 80 : 50 : 30 (N:P:K)
- मध्यम पकने वाली - 120 : 60 : 40 (N:P:K)
- देरी से पकने वाली - 120 : 75 : 50 (N:P:K)
- भूमि की तैयारी करते समय 5 से 8 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे मिलाना चाहिए तथा भूमि परीक्षण उपरांत जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 कि.ग्रा./हे जिंक सल्फेट वर्षा से पूर्व डालना चाहिए।
1. नत्रजन
1/3 मात्रा बुवाई के समय, (आधार खाद के रूप मे)
1/3 मात्रा लगभग एक माह बाद, (साइड ड्रेसिंग के रूप में)
1/3 मात्रा नरपुष्प (मंझरी) आने से पहले
2. फास्फोरस व पोटाश
इनकी पुरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 5 से.मी. नीचे डालना चाहिए। चुकी मिट्टी मे इनकी गतिशीलता कम होती है, अत: इनका निवेशन ऐसी जगह पर करना आवश्यक होता है जहां पौधो की जड़ें हो।
खरपतवार नियंत्रण (weed control) :-
1. निंदाई-गुड़ाई
- बोने के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए ।
- मक्का की खेती को 30 से 40 दिन तक खरपतवार मुक्त रखना जरूरी है, जिसके लिए 1 से 2 निराई गुड़ाई की जरूरत होती है ।
- पहली गुडाई बुवाई के 25 से 30 दिन पर व दूसरी बुवाई 40 से 45 दिन पर करें ।
2. रासायनिक खरपतवार नियंत्रण
- बुवाई के 2 दिन के अंदर एट्राजिन 50 डबल्यू पी या पेंडिमेथालिन 30 ई सी या एलाक्लोर 50 ई सी 1किलोग्राम प्रति एकड़ या फ्लूक्लोरालिन 45 ई सी 900 मिलीलीटर प्रति एकड़ 200 लीटर पानी के साथ छिड़कें ।
- छिड़काव हेतु फ्लेट फैन या फ्लड जेट नोजल प्रयोग करें ।
- अच्छे परिणाम हेतु एक ही रसायन हर साल न छिड़कें ।
- यदि बुवाई सूखी जमीन में की है तो खरपतवारनाशी का छिड़काव पहली बारिश के 48 घंटे के अंदर करें ।
मक्का के फसल को पुरे फसल अवधि मे लगभग 400-600 mm पानी की आवश्यकता होती है तथा इसकी सिंचाई की महत्वपूर्ण अवस्था पुष्पन और दाने भरने का समय है। इसके अलावा खेत मे पानी का निकासी भी अतिआवश्यक है।
1. मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट - इस कीट की इल्ली पौधे की जड़ को छोड़कर समस्त भागों को प्रभावित करती है। सर्वप्रथम इल्ली तने को छेद करती है तथा प्रभावित पौधे की पत्ती एवं दानों को भी नुकसान करती है। इसके नुकसान से पौधा बौना हो जाता है एवं प्रभावित पौधों में दाने नहीं बनते है। प्रारंभिक अवस्था में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है एवं इसे पौधे के निचले स्थान के दुर्गध से पहचाना जा सकता है।
2. गुलाबी तनाबेधक कीट - इस कीट की इल्ली तने के मध्य भाग को नुकसान पहुंचाती है फलस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है जिस पर दाने नहीं आते है।
उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है ,
- फसल कटाई के समय खेत में गहरी जुताई करनी चाहिये जिससे पौधे के अवशेष व कीट के प्यूपा अवस्था नष्ट हो जाये।
- मक्का की कीट प्रतिरोधी प्रजाति का उपयोग करना चाहिए।
- मक्का की बुआई मानसुन की पहली बारिश के बाद करना चाहिए।
- एक ही कीटनाशक का उपयोग बार-बार नहीं करना चाहिए।
- प्रकाश प्रपंच का उपयोग सायं 6.30 बजे से रात्रि 10.30 बजे तक करना चाहिए।
- मक्का फसल के बाद ऐसी फसल लगानी चाहिए जिसमें कीटव्याधि मक्का की फसल से भिन्न हो।
- जिन खेतों पर तना मक्खी, सफेद भृंग, दीमक एवं कटुवा इल्ली का प्रकोप प्रत्येक वर्ष दिखता है, वहाँ दानेदार दवा फोरेट 10 जी. को 10 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई के समय बीज के नीचे डालें।
- तनाछेदक के नियंत्रण के लिये अंकुरण के 15 दिनों बाद फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे. अथवा कार्बोरिल 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए। इसके 15 दिनों बाद 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों में डालें।
1. तना मक्खी- तना मक्खी का प्रकोप बसंत की फसल में अधिक होता है। तने की मक्खी 3 से 4 दिन के पोधौं पर हमला कर पौधे को टेढ़ा व खोखला कर देती है ।
नियंत्रण- मिट्टी को 2 से 3 मिलीलीटर फिप्रोनिल प्रति लीटर पानी की दर से भिगोएँ ।
2. तना भेदक सुंडी- तना भेदक सुंडी तने में छेद करके उसे अंदर से खाती है । जिससे गोभ एवं तना सूख जाता है ।
नियंत्रण- रोकथाम हेतु बुवाई के 2 से 3 हफ्ते बाद क्वीनालफॉस 30 मिलीलीटर या क्लोरेन्ट्रानीलीप्रोल 3 से 4 मिलीलीटर या स्पीनोसेड 4 से 5 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में छिड़कें । कार्बोफ्यूरान 3जी के 8 से 10 दाने पौधे की गोभ में बुवाई के 30 दिन बाद डालें एवं 45 दिन बाद फिर डालें ।
3. कटुआ - कटुआ कीड़ा काले रंग की सूंडी है, जो दिन में मिट्टी में छुपती है। रात को नए पौधे मिट्टी के पास से काट देती है। रोक न करने पर पूरा नुकसान हो सकता है।
नियंत्रण - रोकथाम हेतु कटे पौधे की मिट्टी खोदे, सुंडी को बाहर निकालकर नष्ट करें एवं स्वस्थ पौधों की मिट्टी को क्लोरोपायरीफास 10 ई सी 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी से भिगोएँ , तना मक्खी की रोकथाम के उपाय से इसकी भी रोक होती है।
4. पत्ती लपेटक सँडी- पत्ती लपेटक सुंडी पत्ती को लपेटकर उसके अंदर का हरा पदार्थ खाती है। पत्ती सफेद पड़कर गिर जाती है।
नियंत्रण- रोकथाम हेतु क्वीनालफॉस 30 मिलीलीटर या ट्राइजोफॉस 30 मिलीलीटर या क्लोरेन्ट्रानीलीप्रोल 3 से 4 मिलीलीटर या स्पीनोसेड 4 से 5 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर छिड़के ।
5. सैनिक सुंडी- सैनिक सुंडी हल्के हरे रंग की, पीठ पर धारियॉ और सिर पीले भूरे रंग का होता है ।बड़ी सुंडी हरी भरी और पीठ पर गहरी धारियाँ होती हैं । यह कुंड मार के चलती है । सैनिक सुंडी ऊपर के पत्ते और बाली के नर्म तने को काट देती है । अगर सही समय पर सुंडी की रोकथाम न की तो फसल में 3 से 4 क्विंटल कम कर देती है । अगर 4 सैनिक सुंडी प्रति वर्गफुट मिलें तो इनकी रोकथाम आवश्क हो जाती है
नियंत्रण- 100 ग्राम कार्बरिल 50 डब्लू पी या 40 मिलीलीटर फेनवेलर 20 ई सी या 400 मिलीलीटर क्वीनालफॉस 25 प्रतिशत ई सी प्रति 100 लीटर पानी प्रति एकड़ छिड़के ।
6. सफेद लट- सफेद लट (कुरमुला) कई फसलों को हानी पहुंचाने वाला भयंकर कीट है । ये मिट्टी में रहकर जड़ों को खाता है, अधिक प्रकोप होने पर 80 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है । ये एक सफेद रंग की सुंडी होती है, जिसका मुंह पीला व पिछला हिस्सा काला होता है । छूने पर ये सी आकार धारण कर लेता है ।
नियंत्रण -
- खेत में कच्चा गोबर न डालें ।
- खेत तैयार करते समय 1 से 2 गहरी जुताई करके इन्हें बाहर निकालें ताकि पक्षी इन्हें खा जाएं ।
- खेत तैयार करते समय व मिट्टी चढ़ाते समय 5 किलोग्राम फोरेट या 6 किलोग्राम फिप्रोनील प्रति एकड़ डालें ।
- नुकसान दिखाई देने पर पौधों की जड़ो के पास क्लोरपायरीफॉस 20 ई सी 40 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी के घोल से भिगोएं ।
जैविक नियंत्रण - करंज के पत्ते ,नीम के पत्ते ,धतूरे के पत्ते 10 लीटर गौमूत्र में डालकर उबालें यह तब तक उबालें जब गौ मूत्र 5 लीटर रह जाये तो ठंडा करके छान कर इस में 1 ली तेल अरंडी का मिला लें 50 ग्राम सर्फ़ मिला कर 15 लीटर पानी में 200 मिली घोल मिला कर तनें और जड़ों में प्रयोग करें।
अन्य रोग नियंत्रण (Other disease control) :-
1. पत्ती झुलसा- पत्ती झुलसा निचली पत्तियों से शुरु होकर ऊपर की ओर बढ़ता है। लंबे, अंडाकार, भूरे धब्बे पत्ती पर पड़ते हैं, जो पत्ते की निचली सतह पर ज्यादा साफ दिखते हैं।
नियंत्रण- रोकथाम हेतू 2.5 ग्राम मेन्कोजेब या 3 ग्राम प्रोबिनब या 2 ग्राम डाईथेन जेड- 78 या 1 मिलीलीटर फेमोक्साडोन 16.6 प्रतिशत + सायमेक्सानिल 22.1 प्रतिशत एस सी या 2.5 ग्राम मेटालैक्सिल–एम या 3 ग्राम सायमेक्सेनिल + मेंकोजब प्रति लीटर पानी में छिड़कें 10 दिन बाद फिर छिड़काव करें।
2. जीवाणु तना सड़न - जीवाणु तना सड़न में मुख्य तना मिट्टी के पास से भूरा,पिलपिला एवं मुलायम हो कर वहां से टूट जाता है। सड़ते हुए भाग से शराब जैसी गंध आती है।
रोकथाम - अधिक नाइट्रोजन न डालें, खेत में पानी खड़ा न रहने दें । खेत में बुवाई के वक्त, फिर गुडाई के वक्त व फिर नर फूल निकलने पर 6 किलोग्राम प्रति एकड़ ब्लीचिंग पाउडर तने के पास डालें । इसे यूरिया के साथ कतई भी न मिलाएं, दोनों को कम से कम 1 हफ्ते अंतर पर डालें ।
नियंत्रण - रोग दिखाई देने पर 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन अथवा 60 ग्राम एग्रीमाइसीन तथा 500 ग्राम कॉपर आक्सीक्लोराइड प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से अधिक लाभ होता है।
3. भूरा धारीदार मृदुरोमिल आसिता रोग- भूरा धारीदार मृदुरोमिल आसिता रोग में पत्ते पर हल्की हरी या पीली, 3 से 7 मिलीमीटर चौड़ी धारियॉ पड़ती हैं, जो बाद में गहरी लाल हो जाती है। नम मौसम में सुबह के समय उन पर सफेद या राख के रंग की फफूद नजर आती है|
नियंत्रण- रोकथाम हेतु लक्षण दिखने पर मेटालेक्सिल + मेंकोजेब 30 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी का छिड़काव करें, 10 दिन बाद पुनः दोहराएं
4. रतुआ- पत्तों की सतह पर छोटे, लाल या भूरे, अंडाकार, उठे हुए फफोले पड़ते हैं। ये पत्ते पर अमूमन एक कतार में पड़ते हैं।
नियंत्रण- रोकथाम हेतु हैक्साकोनाजोल या प्रोपिकोनाजोल 15 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में छिड़कें,15 दिन बाद पुनः दोहराएं ।
5. तुलासिता रोग - इस रोग में पत्तियों पर पीली धारियां पड़ जाती है। पत्तियों के नीचे की सतह पर सफेद रुई के समान फफूंदी दिखाई देती है। ये धब्बे बाद में गहरे अथवा लाल भूरे पड़़ जाते हैं। रोगी पौधे में भुट्टा कम बनते हैं या बनते ही नहीं हैं। रोगी पौधे बौने एवं झाड़ीनुमा हो जाते हैं।
नियंत्रण - इनकी रोकथाम के लिए जिंक मैगनीज कार्बमेट या जीरम 80 प्रतिशत, दो किलोग्राम अथवा 27 प्रतिशत के तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव आवश्यक पानी की मात्रा में घोलकर करना चाहिए।
फसल अवधि पूर्ण होने के पश्चात अर्थात् चारे वाली फसल बोने के 60-65 दिन बाद, दाने वाली देशी किस्म बोने के 75-85 दिन बाद, व संकर एवं संकुल किस्म बोने के 90-115 दिन बाद तथा दाने मे लगभग 25 प्रतिशत् तक नमी हाने पर कटाई करनी चाहिए।
कटाई के बाद मक्का फसल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य गहाई है इसमें दाने निकालने के लिये सेलर का उपयोग किया जाता है। सेलर नहीं होने की अवस्था में साधारण थ्रेशर में सुधार कर मक्का की गहाई की जा सकती है इसमें मक्के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्यकता नहीं है। सीधे भुट्टे सुखे होने पर थ्रेशर में डालकर गहाई की जा सकती है साथ ही दाने का कटाव भी नहीं होता।
भण्डारण (Storage) :-
कटाई व गहाई के पश्चात प्राप्त दानों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। यदि दानों का उपयोग बीज के लिये करना हो तो इन्हें इतना सुखा लें कि आर्द्रता करीब 12 प्रतिशत रहे। खाने के लिये दानों को बॉस से बने बण्डों में या टीन से बने ड्रमों में रखना चाहिए तथा 3 ग्राम वाली एक क्विकफास की गोली प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से ड्रम या बण्डों में रखें। रखते समय क्विकफास की गोली को किसी पतले कपडे में बॉधकर दानों के अन्दर डालें या एक ई.डी.बी. इंजेक्शन प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से डालें। इंजेक्शन को चिमटी की सहायता से ड्रम में या बण्डों में आधी गहराई तक ले जाकर छोड़ दें और ढक्कन बन्द कर दें।
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