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    कपास की उन्नत उत्पादन तकनीक व कपास के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें --




    कपास की खेती कैसे करें ! बुवाई का समय तथा विधि ! किट नियंत्रण ! रोग नियंत्रण की सभी जानकारी ,,, (How to cultivate cotton!  Time and method of sowing!  Kit control!  All information about disease control ,,,)

    कपास की खेती भारत की सबसे महत्वपूर्ण रेशा और नगदी फसल में से एक है। और देश की औदधोगिक व कृषि अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। कपास की खेती लगभग पुरे विश्व में उगाई जाती है। यह कपास की खेती वस्त्र उद्धोग को बुनियादी कच्चा माल प्रदान करता है। भारत में कपास की खेती लगभग 6 मिलियन किसानों को प्रत्यक्ष तौर पर आजीविका प्रदान करता है और 40 से 50 लाख लोग इसके व्यापार या प्रसंस्करण में कार्यरत है।

    व्यावसायिक रूप से कपास की खेती को सफेद सोना के रूप में भी जाना जाता है। देश में व्यापक स्तर पर कपास उत्पादन की आवश्यकता है। क्योंकी कपास का महत्व इन कार्यो से लगाया जा सकता है इसे कपड़े बनते है, इसका तेल निकलता है और इसका विनोला बिना रेशा का पशु आहर में व्यापक तौर पर उपयोग में लाया जाता है।

    लम्बे रेशा वाले कपास को सर्वोतम माना जाता है जिसकी लम्बाई 5 सेंटीमीटर इसको उच्च कोटि की वस्तुओं में शामिल किया जाता है। मध्य रेशा वाला कपास (Cotton) जिसकी लम्बाई 3.5 से 5 सेंटीमीटर होती है इसको मिश्रित कपास कहा जाता है।तीसरे प्रकार का कपास छोटे रेशा वाला होता है। जिसकी लम्बाई 3.5 सेंटीमीटर होती है।


    कपास हेतु जलवायु (Climate for cotton) :-
    1. कपास की उत्तम फसल के लिए आदर्श जलवायु का होना आवश्यक है।
    2. फसल के उगने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेंटीग्रेट और अंकुरण के लिए आदर्श तापमान 32 से 34 डिग्री सेंटीग्रेट होना उचित है।
    3. इसकी बढ़वार के लिए 21 से 27 डिग्री तापमान चाहिए ।फलन लगते समय दिन का तापमान 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तथा रातें ठंडी होनी चाहिए।
    4. कपास के लिए कम से कम 50 सेंटीमीटर वर्षा का होना आवश्यक है। 125 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा का होना हानिकारक होता है।
    कपास के लिए उपयुक्त भूमि (Land suitable for cotton) :-
    कपास के लिए उपयुक्त भूमि में अच्छी जलधारण और जल निकास क्षमता होनी चाहिए। जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है, वहां इसकी खेती अधिक जल-धारण क्षमता वाली मटियार भूमि में की जाती है। जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हों वहां बलुई एवं बलुई दोमट मिटटी में इसकी खेती की जा सकती है। यह हल्की अम्लीय एवं क्षारीय भूमि में उगाई जा सकती है। इसके लिए उपयुक्त पी एच मान 5.5 से 6.0 है। हालाँकि इसकी खेती 8.5 पी एच मान तक वाली भूमि में भी की जा सकती है।

    खेत की तैयारी कैसे करे (How to prepare the field) :-
    दक्षिण व मध्य भारत में कपास वर्षा-आधारित काली भूमि में उगाई जाती है। इन क्षेत्रों में खेत तैयार करने के लिए एक गहरी जुताई मिटटी पलटने वाले हल से रबी फसल की कटाई के बाद करनी चाहिए, जिसमें खरपतवार नष्ट हो जाते हैं और वर्षा जल का संचय अधिक होता है। इसके बाद 3 से 4 बार हैरो चलाना काफी होता है।  बुवाई से पहले खेत में पाटा लगाते हैं, ताकि खेत समतल हो जाए।

    कपास के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें (Some important things about cotton) :-
    1. कपास रेशे वाली फसल हैं यह कपडे़ तैयार करने का नैसर्गिक रेशा हैं।
    2. मध्यप्रदेश में कपास सिंचित एवं असिंचित दोनों प्रकार के क्षेत्रों में लगाया जाताहैं।
    3. प्रदेश में कपास फसल का क्षेत्र 7.06 लाख हेक्टेयर था तथा उपज 426.2 किग्रा लिंट/हे.
    4. बी.टी.कपास से अधिकतम उपज दिसम्बर मध्य तक लेली जाती हैं जिससे रबी मौसम गेहूँ का उत्पादन भी लिया जा सकता हैं।
    5. म.प्र. के कपास क्षेत्र का लगभग 75 प्रतिशत निमाड़ अंचल में आता हैं। इसके अतिरिक्त धार, झाबुआ, देवास, छिंदवाड़ा जिलों में कपास फसल ली जाती है। मध्यम से भारी बलुई दोमट एवं गहरी काली भूमि जिसमें पर्याप्त जीवांश हो व पानी निकास की व्यवस्था हो, कपास के लिए अच्छी होती है। 
    कपास की उन्नत जातियाँ (Advanced species of cotton) :-
    आजकल अधिकतर किसान बीटी. कपास लगा रहे हैं जी.ई.सी. द्वारा लगभग 250 बी.टी. जातियाँ अनुमोदित हैं। हमारे प्रदेश में प्रायः सभी जातियाँ लगायी जा रही हैं। बीटी कपास में बीजी-1 एवं बीजी-2 दो प्रकार की जातियाँ आती हैं। बीजी-1 जातियों में तीन प्रकार के डेन्डू छेदक इल्लियोंए चितकबरी इल्ली, गुलाबी डेन्डू छेदक एवं अमेरिकन डेन्डू छेदक के लिए प्रतिरोधकता पायी जाती है जबकि बीजी-2 जातियाँ इनके अतिरिक्त तम्बाकू की इल्ली की भी रोक करती हैं म.प्र.में प्रायः तम्बाकू की इल्ली कपास पर नहीं देखी गई अतः बीजी.-1जातियाँ ही लगाना पर्याप्त हैं।


    संकर किस्म , उपयुक्त क्षेत्र व विशेषताएं (hybrid variety, suitable area and characteristics) :-         
    1. डी.सी.एच. 32 (1983)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- धार, झाबुआ, बड़वानी खरगौन
    विशेश :- महीन रेशे की किस्म,
    2. एच-8 (2008)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र   
    विशेश :- जल्दी पकने वाली किस्म 130-135दिन  25-30क्विं/हे
    3. जी कॉट हाई.10 (1996)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र
    विशेश :- अधिक उत्पादन 30-35 क्विं/हे
    4. बन्नी बी टी (2001)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा खरगौन व अन्य क्षेत्र
    विशेश :- महीन रेशा, अच्छी गुणवत्ता 30-35 क्विं/हे
    5. डब्लूएचएच 09 बीटी (1996)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र
    विशेश :- महीन रेशा, अच्छी गुणवत्ता 30-35 क्विं/हे
    6. आरसीएच 2 बीटी (2000)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र
    विशेश :- अधिक उत्पादन, सिंचिंत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त
    7. जेके एच-1 (1982)
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र
    विशेश :- अधिक उत्पादन, सिंचिंत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त
    8. जे के एच 3 (1997)           
    उपयुक्त क्षेत्र जिले :- खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र
    विशेश :- जल्दी पकने वाली किस्म 130-135 दिन

    अन्य उन्नत किस्में (Other Advanced Varieties) :-
    1. जेके 4 (2002)
    विशेश :- असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त 18-20 क्विं/हे
    2. जेके 5, (2003)
    विशेश :- अच्छी गुणवत्ता, मजबूत रेशा  18-20 क्विं/हे
    3. जवाहर ताप्ती (2002)
    विशेश :- रसचूसक कीटो के लिए प्रतिरोधी 15-18 क्विं/हे

    कपास के बीज उपचार कैसे करे (How to treat cotton seed) :-
    1. कपास के बीज में छुपी हुई गुलाबी सुंडी को नष्ट करने के लिये बीजों को धूमित कर लीजिये। 40 किलोग्राम तक बीज को धूमित करने के लिये एल्यूमीनियम फॉस्फॉइड की एक गोली बीज में डालकर उसे हवा रोधी बनाकर चौबीस घण्टे तक बन्द रखें, धूमित करना सम्भव न हो तो तेज धूप में बीजों को पतली तह के रूप में फैलाकर 6 घण्टे तक तपने देवें।
    2. बीजों से रेशे हटाने के लिये जहां सम्भव हो, 10 किलोग्राम बीज के लिये एक लीटर व्यापारिक गंधक का तेजाब पर्याप्त होता है। मिट्टी या प्लास्टिक के बर्तन में बीज डालकर तेजाब डालिये तथा एक दो मिनट तक लकड़ी से हिलाईये , बीज काला पड़ते ही तुरन्त बीज को बहते हुए पानी में धो डालिये एवं ऊपर तैरते हुए बीज को अलग कर दीजिये, गंधक के तेजाब से बीज के उपचार से अंकुरण अच्छा होगा । यह उपचार कर लेने पर बीज को प्रधूमन की आवश्यकता नहीं रहेगी।
    3. बीज जनित रोग से बचने के लिये बीज को 10 लीटर पानी में एक ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या ढाई ग्राम एग्रीमाइसिन के घोल में 8 से 10 घण्टे तक भिगोकर सुखा लीजिये इसके बाद बोने के काम में लेवें।
    4. जहाँ पर जड़ गलन रोग का प्रकोप होता है ट्राइकोड़मा हारजेनियम या सूडोमोनास फ्लूरोसेन्स जीव नियन्त्रक से 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें या रासायनिक फफूंदनाशी जैसे कार्बोक्सिन 70 डब्ल्यू पी, 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या कार्बेन्डेजिम 50 डब्ल्यू पी से 2 ग्राम या थाईरम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें ।
    5. रेशे रहित एक किलोग्राम नरमे के बीज को 5 ग्राम इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू एस या 4 ग्राम थायोमिथोक्साम 70 डब्ल्यू एस से उपचारित कर पत्ती रस चूसक हानिकारक कीट और पत्ती मरोड़ वायरस को कम किया जा सकता है।
    6. असिंचित स्थितियों में कपास की बुवाई के लिये प्रति किलोग्राम बीज को 10 ग्राम एजेक्टोबेक्टर कल्चर से उपचारित कर बोने से पैदावार में वृद्धि होती है|


    बुवाई का समय एवं विधि (Sowing Time and Method) :-
    यदि पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध हैं तो कपास की फसल को मई माह में ही लगाया जा सकता हैं सिंचाई की पर्याप्त उपलब्धता न होने पर मानसून की उपयुक्त वर्षा होते ही कपास की फसल लगावें। कपास की फसल को मिट्टी अच्छी भूरभूरी तैयार कर लगाना चाहिए। सामान्यतः उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन/डिलिन्टेड) तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिए उपयुक्त होता हैं।
    उन्नत जातियों में चैफुली 45-60×45-60 सेमी. पर लगायी जाती हैं (भारी भूमि में 60×60, मध्य भूमि में 60×45, एवं हल्की भूमि में ) संकर एवं बीटी जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमशः 90 से 120 सेमी. एवं 60 से 90सेमी रखी जाती हैं !

    सघन खेती के लिए बीज व दूरी (Seeds and distance for intensive farming) :-
    कपास की सघन खेती में कतार से कतार 45 सेमी एवं पौधे से पौधे 15 सेमी पर लगाये जाते है, इस प्रकार एक हेक्टेयर में 1,48,000 पौधे लगते है। बीज दर 6 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखी जाती है। इससे 25 से 50 प्रतिशत की उपज में वृद्धि होती है।
    इस हेतु उपयुक्त किस्में निम्न है :- एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) , एनएचएच 48 बीटी (2013) जवाहर ताप्ती, जेके 4 , जेके 5आदि।

    अन्तर फसली खेती (Inter cropping) :-
    कपास की कतारों के बीच एक कतार बैसाखी मूंग की बोना लाभप्रद है। बारानी क्षेत्र में अन्तर्शस्य अपनाना उपयुक्त है, जुड़वा कतार विधि से अन्तर्शस्य अधिक लाभप्रद रहती है। सिंचित क्षेत्र में निम्न फसल चक्र लाभप्रद एवं उपज में वृद्धि करने वाले पाये गये हैं, जैसे-
    1. कपास – गेहूं या मटर (एक वर्ष)
    2. मक्का – गेहूं – कपास – मैथी (दो वर्ष)
    3. मक्का – सरसों – कपास – मैथी (दो वर्ष)
    4. ग्वार – गेहूं – चारा – कपास (दो वर्ष)

    कपास के लिए उपयुक्त उर्वरक (Fertilizer suitable for cotton) :-

    1. प्रजाति - उन्नत
    नत्रजन - 80-120 (किलोग्राम/हे.)
    देने का समय - 15% बुआई के समय एक चैथाई 30 दिन, 60 दिन, 90 दिन पर बाकी 120 दिन पर
    फास्फोरस - 40-60 (किलोग्राम/हे.)
    देने का समय - आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर
    पोटाश - 20-30 (किलोग्राम/हे. )
    देने का समय - आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर
    गंधक - 25 (किग्रा/हे.)
    देने का समय - बुआई के समय

    2. प्रजाति - संकर
    नत्रजन - 150 (किलोग्राम/हे. )
    देने का समय - 15% बुआई के समय एक चैथाई 30 दिन, 60 दिन, 90 दिन पर बाकी 120 दिन पर
    फास्फोरस - 75 (किलोग्राम/हे. )
    देने का समय - आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर
    पोटाश - 40 (किलोग्राम/हे. )
    देने का समय - आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर
    गंधक - 25 (किलोग्राम/हे. )
    देने का समय - बुआई के समय

    3. ये भी अपना सकते है 
    1. उपलब्ध होने पर अच्छी तरह से पकी हुई गोबर की खाद/कम्पोस्ट 7 से 10 टन/हे. (20 से 25 गाड़ी) अवश्य देना चाहिए ।
    2. बुआई के समय एक हेक्टेयर के लिए लगने वाले बीज को 500 ग्राम एजोस्पाइरिलम एवं 500 ग्राम पी.एस.बी. से भी उपचारित कर सकते है जिससे 20 किग्रा नत्रजन एवं 10 किग्रा स्फुर की बचत होगी।
    3. बोनी के बाद उर्वरक को कालम पद्धति से देना चाहिए। इस पद्धति से पौधे के घेरे/परिधि पर 15 सेमी गहरे गड्ढे सब्बल बनाकर उनमें प्रति पौधे को दिया जाने वाला उर्वरक डालते है व मिट्टी से बंद कर देते है।

    बी.टी. कपास में रिफ्यूजिया का महत्व (B.t.  Importance of Refugia in Cotton) :-
    भारत सरकार की अनुवांषिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समिति (जी. ई.ए.सी.) की अनुशंसा के अनुसार कुल बीटी क्षेत्र का 20 प्रतिशत अथवा 5 कतारें (जो भी अधिक हो) मुख्य फसल के चारों उसी किस्म का नान बीटी वाला बीज लगाना (रिफ्यूजिया) लगाना अत्यंत आवष्यक हैं प्रत्येक बीटी किस्म के साथ उसका नान बीटी (120 ग्राम बीज) या अरहर का बीज उसी पैकेट के साथ आता हैं। बीटी किस्म के पौधों में बेसिलस थुरेनजेसिस नामक जीवाणु का जीन समाहित रहता जो कि एक विषैला प्रोटीन उत्पन्न करता हैं इस कारण इनमें डेन्डू छेदक कीटों से बचाव की क्षमता विकसित होती हैं। रिफ्यूजिया कतारे लगाने पर डेन्डू छेदक कीटों का प्रकोप उन तक ही सीमित रहता हैं और यहाँ उनका नियंत्रण आसान होता हैं। यदि रिफ्यूजिया नहीं लगाते तो डेन्डू छेदक कीटों में प्रतिरोधकता विकसित हो सकती हैं ऐसी स्थिति में बीटी किस्मों की सार्थकता नहीं रह जावेगी ।

    निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण (Weeding hoeing and Weed control) :-


    1. निराई-गुड़ाई सामान्यतः पहली सिंचाई के बाद बतर आने पर कसौले से करनी चाहिए,  इसके बाद आवश्यकतानुसार एक या दो बार त्रिफाली चलायें।
    2. रसायनों द्वारा खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ई सी, 833 मिलीलीटर (बीजों की बुवाई के बाद मगर अंकुरण से पहले) या ट्राइलूरालीन 48 ई सी, 780 मिलीलीटर (बीजाई से पूर्व मिट्टी पर छिड़काव) को 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से लेट फेन नोजल से उपचार करने से फसल प्रारम्भिक अवस्था में खरपतवार विहीन रहती है। इनका प्रयोग बिजाई से पूर्व मिट्टी पर छिड़काव भली-भांति मिलाकर करें।
    3. प्रथम सिंचाई के बाद कसोले से एक बार गुड़ाई करना लाभदायक रहता है। यदि फसल में बोई किस्म के अलावा दूसरी किस्म के पौधे मिले हुए दिखाई दें तो उन्हें निराई के समय उखाड़ दीजिए क्योंकि मिश्रित कपास का मूल्य कम मिलता है।

    सिंचाई प्रबंधन व समय (Irrigation Management and Timing) :-
    एकान्तर (कतार छोड़ ) पद्धति अपना कर सिंचाई जल की बचत करे। बाद वाली सिंचाईयाँ हल्की करें,अधिक सिंचाई से पौधो के आसपास आर्द्रता बढ़ती है व मौसम गरम रहा तो कीट एवं रोगों के प्रभाव की संभावना बढ़तीहै।

    1. सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाएँ :-
    सिम्पोडिया, शाखाएँ निकलने की अवस्था एवं 45-50 दिन फूल पुड़ी बनने की अवस्था।
    फूल एवं फल बनने की अवस्था 75-85 दिन
    अधिकतम घेटों की अवस्था 95-105 दिन
    घेरे वृद्धि एवं खुलने की अवस्था 115-125दिन

    2. टपक सिंचाई से जल की बचत करें :-
    टपक सिंचाई एक महत्वपूर्ण सिंचाई साधन है यह बिजली, मेहनत और लगभग 70 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत करता है। टपक सिंचाई को तीन दिन में एक बार चलाया जाना चाहिए । टपक सिंचाई की सहायता से पौधों को घुलनशील खाद एवं कीटनाशकों की आपूर्ति की जा सकती है। प्रत्येक पौधे को उचित ढंग से पर्याप्त जल व उर्वरक उपलब्ध होने के कारण उपज में वृद्धि होती है।

    3. सिंचाई प्रबंधन :-

    1. बुवाई के बाद 5 से 6 सिंचाई करें, उर्वरक देने के बाद एवं फूल आते समय सिंचाई अवश्य करें। दो फसली क्षेत्र में 15 अक्टूबर के बाद सिंचाई नहीं करें।
    2. अंकुरण के बाद पहली सिंचाई 20 से 30 दिन में कीजिये। इससे पौधों की जड़े ज्यादा गहराई तक बढ़ती है।  इसी समय पौधों की छंटनी भी कर दीजिये। बाद की सिंचाईयां 20 से 25 दिन बाद करें।
    3. नरमा या बी टी की प्रत्येक कतार में ड्रिप लाईन डालने की बजाय कतारों के जोड़े में ड्रिप लाईन डालने से ड्रिप लाईन का खर्च आधा होता है।
    4. इसमें पौधे से पौधे की दूरी 60 सेंटीमीटर रखते हुए जोडे में कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर रखें और जोडे से जोडे की दूरी 120 सेंटीमीटर रखें, प्रत्येक जोडे में एक ड्रिप लाईन डाले तथा ड्रिप लाईन में ड्रिपर से ड्रिपर की दूरी 30 सेंटीमीटर हो और प्रत्येक ड्रिपर से पानी रिसने की दर 2 लीटर प्रति घण्टा हो।
    5. सूखे में बिजाई करने के बाद लगातार 5 दिन तक 2 घण्टे प्रति दिन के हिसाब से ड्रिप लाईन चला देवें। इससे उगाव अच्छा होता है और बुवाई के 15 दिन बाद बून्द-बून्द सिंचाई प्रारम्भ करें।
    6. बून्द-बूंद सिंचाई का समय संकर नरमा की सारणी के अनुसार ही रखे, वर्षा होने पर वर्षा की मात्रा के अनुसार सिंचाई उचित समय के लिये बन्द कर दें, पानी एक दिन के अन्तराल पर लगावें।
    7. 10 मीटर क्यारी की चौड़ाई और 97.50 प्रतिशत कट ऑफ रेशियो पर अधिकतम उपज ली जा सकती है।
    8. बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति से सिफारिश किये गयी नत्रजन की मात्रा 6 बराबर भागों में दो सप्ताह के अन्तराल पर ड्रिप संयंत्र द्वारा देने से सतही सिंचाई की तुलना में ज्यादा उपयुक्त पायी गयी है।
    9. इस पद्धति से पैदावार बढ़ने के साथ-साथ सिंचाई जल की बचत, रूई की गुणवत्ता में बढ़ौतरी और कीड़ों के प्रकोप में भी कमी होती है।

    किट, पहचान, नुकसान व नियंत्रण के उपाय (Pest, detection, damage and control measures) :--

    कपास की फसल को वैसे तो बहुत सारे कीट हानि पहुंचाते हैं। परन्तु जो कीट आर्थिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनके बारे में विस्तृत जानकारी इस प्रकार है, जैसे-

    1. हरा तेला - पत्तियों की निचली सतह पर शिराओं के पास बैठकर रस चूस कर हानि पहुंचाता है, जिससे पत्तियों के किनारे हल्के पीले पड़ जाते हैं, फलस्वरूप ये पत्तियाँ किनारों से नीचे की तरफ मुड़ने लगती है।

    जैव नियंत्रण (Bio control)
    1. परभक्षी कीट क्राईसोपा 10 हजार प्रति बीघा की दर से छोड़े और आवश्यकता पड़ने पर परभक्षी को फूल अवस्था में पुनः दोहरायें।
    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control)
    प्रकोप अधिक होने पर निम्नलिखित रसायनों का उपयोग करे
    1. इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल, 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    2. मोनोक्रोटोफास 36 एस एल, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    3. एसीफेट 75 एस पी, 2.0 ग्राम प्रति लीटर  
    4. डाइमिथोएट 30 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    5. थायोमिथोक्साम 25 डब्ल्यू जी, 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

    2. सफेद मक्खी - यह पत्तियों की निचली सतह से रस चूसती है और साथ ही शहद जैसा चिपचिपा पदार्थ छोड़ती है, जिसके ऊपर फहूँद उत्पन्न होकर बाद में पत्तियों को काला कर देती है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियाँ राख और तेलिया दिखाई देती है। यह कीट विषाणु रोग (पत्ता मरोड़क) भी फैलाता है।

    जैव नियंत्रण (Bio control)
    1. कीट रोधी बीकानेरी नरमा, मरू विकास, आर एस- 875 उगायें जैसी किस्में उगाएं। 
    2. 8 से 12 येलो स्टिकी ट्रेप प्रति बीघा की दर से फसल में कीट के सक्रिय काल में लगायें ।
    3. परभक्षी कीट क्राइसोपा 12 हजार प्रति बीघा की दर से छोड़े और आवश्यकता पड़ने पर परभक्षी को फूल अवस्था में पुनः दोहरायें ।
    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control)
    अधिक प्रकोप होने पर
    1. ट्राइजोफास 40 ई सी, 2.5 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    2. इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल, 0.3. मिलीलीटर प्रति लीटर 
    3. मिथाईल डिमेटोन 25 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    4. एसिटामिप्रीड 20 एस पी, 0.4 ग्राम प्रति लीटर 
    5. थायोक्लोप्रिड 240 एस सी,1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    6. थायोमिथोग्जाम 25 डब्ल्यू जी, 0.5 ग्राम प्रति लीटर 
    7. डाईफेन्थूरान 50 डब्ल्यू पी, 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

    3. चितकबरी सुंडी - प्रारम्भ में लटें तने और शाखाओं के शीर्षस्थ भाग में प्रवेश कर उन्हें खाकर नष्ट करती है, इससे कीट ग्रसित ये भाग सूख जाते हैं। लट से प्रभावित कलियों की पंखुड़ियाँ पीली होकर आपस में एक दूसरे से दूर हटती हुई दिखाई देती है। जैसे ही पौधों पर कलियाँ, फूल एवं टिण्डे बनने शुरू होते हैं लटें उन पर आक्रमण कर देती है।

    जैव नियंत्रण (Bio control)
    1. फसल में कीट ग्रसित तने और शाखाओं के शीर्षस्थ भागों को तोड़कर उन्हें जलाकर नष्ट कर देना चाहिये।
    2. 5 से 10 फेरेमोन ट्रेप (लिंग आकर्षक) प्रति हैक्टेयर नर पतंगों का पता और उनको नष्ट करने हेतू लगाये।
    3. परजीवी ट्राइकोग्रामा 40 हजार प्रति बीघा की दर से शाम के समय फसल में छोड़े, यह प्रक्रिया कम से कम 3 बार (7 दिन अन्तराल) पर अवश्य दोहरायें।
    4. परभक्षी कीट क्राईसोपा 12 हजार प्रति बीघा की दर से छोड़े। आवश्यकता पड़ने पर परभक्षी को फूल अवस्था में पुनः छोड़ें ।
    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control)
    अधिक प्रकोप होने पर निम्नलिखित रसायनों का प्रयोग करें
    1. मोनोक्रोटोफॉस 36 एस एल, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    2. फेनवेलरेट 20 ई सी, 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    3. मेलाथियॉन 50 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    4. क्लोरपाईरीफॉस 20 ई सी, 5.0 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    5. डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई सी, 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    6. क्यूनालफॉस 25 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    7. इन्डोक्साकार्ब 14.5 एस सी, 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    8. स्पाईनोसेड 45 एस सी, 0.33 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    9. फ्लूबेन्डियामाइड 480 एस सी, 0.40 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

    4. अमेरिकन सुंडी - पौधों में फलीय भाग उपलब्ध न होने पर पत्तियों को खाकर और गोल-गोल छेद कर नुकसान करती है। फूल एवं टिण्डों के अन्दर नुकसान करती हुई लटों का मल पदार्थ फल भागों के बाहर निकला हुआ दिखाई देता है। कीट का सक्रिय काल सामान्य तौर पर मध्य अगस्त से मध्य अक्टूबर परन्तु विशेष परिस्थिति में कीट का आक्रमण आगे-पीछे भी हो सकता है।

    जैव नियंत्रण (Bio control)
    1. प्रकाश पाश (लाईट ट्रेप) को सूर्य अस्त के बाद लगाए
    2. परजीवी ट्राइकोग्रामा 40 से 50 हजार प्रति बीघा की दर से फेरोमोन ट्रेप के अन्दर प्रौढ़ और फसल में अण्डे दिखाई देने पर ही छोड़े।
    3. परभक्षी क्राइसोपा 10 से 12 हजार प्रति बीघा की दर से फसल में पत्तों पर अण्डे दिखाई देने पर छोड़ें।
    4. न्युक्लियर पोलिहाइड्रोसिस वायरस (एन पी वी) का 0.75 मिली लीटर (एल ई) प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।
    5. नीम युक्त दवा (300 पीपीएम) 5.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़कें।
    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control) 
    अधिक प्रकोप होने पर निम्नलिखित रसायनों का स्तेमाल करे
    1.  क्यूनालफॉस 25 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    2. मेलाथियॉन 50 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    3. डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई सी, 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    4. थायोडिकार्ब 75 एस पी, 1.75 ग्राम प्रति लीटर 
    5. इथियान 50 ई सी, 3.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    6. बीटासिफलूथिन 2.5 ई सी, 0.75 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    7. क्लोरपाईरीफॉस 20 ई सी, 5.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    8. अल्फामेथ्रिन 10 ई सी, 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

    5. गुलाबी सुंडी - गुलाबी सुंडी के नुकसान की पहचान अपेक्षाकृत कठिन होती है, क्योंकि लटें फलीय भागों के अन्दर छुपकर एवं प्रकाश से दूर रहकर नुकसान करती है। फिर भी अगर कलियाँ फूल एवं टिण्डों को काटकर देखें तो छोटी अवस्था की लटें प्रायः फलीय भागों के ऊपरी हिस्सों में मिलती है।

    यांत्रिकी नियंत्रण (Mechanical control)
    1. ऐसे सभी फूल जिनकी पंखुड़ियाँ ऊपर से चिपकी हो उन्हें हाथ से तोड़कर उनके अन्दर मौजूद गुलाबी सुंडियों को नष्ट किया जा सकता है। यह प्रक्रिया सप्ताह में कम से कम एक बार अवश्य करें।
    2. 5 फेरोमोन ट्रेप प्रति हैक्टेयर नर पतंगों को नष्ट करने हेतु लगायें।
    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control)
    अधिक प्रकोप होने पर निम्नलिखित रसायनों का प्रयोग करें 
    1. साइपरमेथ्रिन 10 ई सी, 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    2. साइपरमेथ्रिन 25 ई सी, 0.4 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    3. कार्बरिल 50 डब्ल्यू पी, 4.5 ग्राम प्रति लीटर  
    4. ट्राइजोफॉस 40 ई सी, 2.5 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    5. मेलाथियॉन 50 ई सी, 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    6. डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई सी, 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    7. फ्लूबेन्डियामाइड 480 एस सी, 0.4 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

    5. तम्बाकू लट - यह लट बहुत ही हानिकारक कीट है। इसकी लटें पौधों की पत्तियाँ खाकर जालीनुमा बना देती है व कभी-कभी पौधों को पत्तियाँ रहित कर देती है।

    यांत्रिकी नियंत्रण (Mechanical control)
    1. इस कीट के अंण्डो के समूह जो कि पत्तियों की नीचे वाली सतह पर होते हैं उन्हें इकट्ठा करके नष्ट कर दें, लटों को हाथ से इक्ट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए।
    2. प्रौढ़ कीट (पतंगों) को फेरोमोन ट्रेप लगाकर पकड़ा जा सकता है, इसलिए 10 ट्रेप प्रति हैक्टर की दर से खेत में लगाने चाहिए।

    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control)
    अधिक प्रकोप होने पर निम्नलिखित रसायनों का प्रयोग करें
    1. थायोडिकार्ब 75 एस पी, 1.75 ग्राम प्रति लीटर 
    2. क्लोरपाइरिफास 20 ई सी, 5 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    3. क्यूनालफॉस 25 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर  
    4. एसीफेट 75 एस पी, 2 ग्राम प्रति लीटर 
    5. न्यूवालूरोन 10 ई सी, 1 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    6. इमामैक्टीन बैनजोएट 5 एस जी, 0.5 ग्राम प्रति लीटर  
    7. फलूबैन्डीयामाइड 480 एस सी, 0.4 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें।

    6. मीलीबग - इस कीट के मुखांग रस चूसने वाले होते है। कीट अनुकूल परिस्थितियों में भूमि से निकल कर खेत के आसपास के खरपतवारों पर संरक्षण लेते है। फिर मुख्य फसल पर आता है। खेत में अधिक प्रकोप होने पर ही पता चलता है। कीट के निम्फ या  क्रावलर्स व व्यस्क दोनों ही पत्तियों, डण्ठलों, कलियों, फूलों, टहनियों व टिण्डों से रस चूसते है। कीट के अधिक प्रकोप से पत्तियाँ पीली हो कर गिर जाती हैं। तना सूख कर सिकुड़ जाता है व काला हो जाता है और फूल टिण्डे सूख कर गिर जाते है।

    यांत्रिकी नियंत्रण (Mechanical control)
    1. फसल चक्र को अपनायें, एक ही खेत में लगातार कपास की फसल न लें ,
    2. मीलीबग की रोकथाम हेतु चीटियों का नियंत्रण करना जरूरी है। क्योंकि मीलीबग चीटिंयों की सहायता से एक खेत से दूसरे खेत में प्रवेश कर जाती है । इसके लिए खेत के चारों तरफ अवरोधक का घेरा बनायें तथा क्यूनालफॉस डस्ट का प्रयोग करें, चीटियों के बिलों को नष्ट कर दें , खेत में ग्रसित फसलों के अवषेशों को इकट्ठा करके जला दें और खेत के चारों तरफ उगे खरपतवारों को नष्ट कर दें !
    3. मीलीबग कपास की छंटियों के अंदर रहते हैं अतः छुट्टियों को फरवरी माह से पहले-पहले जला देना चाहिए, छुट्टियों का खेत में ढेर नहीं लगाना चाहिए
    4. फसल के चारों तरफ बाजरा व ज्वार की दो-दो कतार में बोयें लेकिन फसल के पास ग्वार, भिण्डी को न बोयें !
    रासायनिक नियंत्रण (Chemical control)
    कीटनाशक रसायनों का छिड़काव पौधे के तने व ऊपरी भाग पर अच्छी तरह से करें व दूसरा छिड़काव जल्दी ही दोहरायें !
    1. मीलीबग से ग्रसित खेत को तैयार करते समय क्यूनालफॉस धूडा 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से मिला देवें 
    2. खेत में पलेवा देते समय क्लोरपाइरीफास 20 ई सी, 4 लीटर प्रति हैक्टर सिंचाई के साथ दें !
    3. अधिक प्रकोप होने पर निम्नलिखित रसायनों का मिथाईल डिमेटोन 25 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    4. क्यूनालफॉस 25 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    5. ट्राईजोफॉस 40 ई सी, 1 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    6. प्रोफेनोफास 50 ई सी, 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी 
    7. एसिटामिप्रिड 20 एस पी, 1 ग्राम प्रति लीटर 
    8. क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर 
    9. एसीफेट 75 एस पी 2 ग्राम प्रति लीटर  
    10. थायोडीकार्ब 75 डब्ल्यू पी, 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 
    किसी एक कीटनाशी का छिड़काव करें !

    जैव नियंत्रण (Bio control)
    1. मिलीबग कीट पर आक्रमण करने वाले कीट, जैसे-परभक्षी- (लेडीबर्ड बीटल) बरूमेडस लिनीटस, कोक्सीनैला सेप्टमपंक्टेटा, चिलोमेन्स सेक्समाकूलाटा, रोडोलिया फूमिडा, क्रीप्टोलीम्स मोनट्रोज्यूरी व क्राइसोपरला कारनी परभक्षी कीटो को खेत में छोड़े।
    2. परजीवी कीट- अनागीरस रामली व अनीसीअस बोम्बावाली भी खेत में छोड़ें।
    कपास के रोग के लक्षण एवं प्रबंधन (Symptoms and Management of Cotton Disease) :-

    1. कपास का कोणीय धब्बा एवं जीवाणु झुलसा रोग --
    रोग के लक्षण -- रोग के लक्षण पौधे के वायुवीय भागों पर छोटे गोल जलसक्ति बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं। रोग के लक्षण घेटों पर भी दिखाई देते हैं। घेटों एवं सहपत्रों पर भी भूरे काले चित्ते दिखाई देते हैं। ये घेटियाँ समय से पहले खुल जाती है रोग ग्रस्त घेटों का रेशा खराब हो जाता है इसका बीज भी सिकुड़ जाता है
    2. मायरोथीसियम पत्तीधब्बा रोग --
    रोग के लक्षण -- इस रोग में पत्तियों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। कुछ समय बाद ये धब्बे आपस में मिलकर अनियमित रूप से पत्तियों का अधिकांश भाग ढँक लेते हैं, धब्बों के बीच का भाग टूटकर नीचे गिर जाता है। इस रोग से फसल की उपज में लगभग 20-25 प्रतिशत तक कमी आंकी गई है ।
         
    3. अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग --
    रोग के लक्षण -- इस रोग में पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के संकेंद्रित धब्बे बनते हैं व अन्त में पत्तियाँ सूखकर झड़ने लगती है। वातावरण में नमी की अधिकता होने पर ही यह रोग दिखाई देता है एवं उग्र रूप से फैलता है,।
    4. पौध अंगमारी रोग --    
    रोग के लक्षण -- पौध अंगमारी रोग में बीजांकुरों के बीजपत्रों पर लाल भूरे रंग के सिकुड़े हुए धब्बे दिखाई देते हैं एवं स्तम्भ मूल संधि क्षेत्र लाल भूरे रंग का हो जाता है। रोगग्रस्त पौधे की मूसला जड़ों को छोड़कर मूलतन्तु सड़ जाते हैं। खेत में उचित नमी रहते हुए भी पौधों का मुरझाकर सूखना इस बीकारी का मुख्य लक्षण है।

    सभी रोगों के प्रबंधन (Management of all diseases) :--
    1. बोने से पूर्व बीजों को बावेस्टीन कवकनाशी दवा की 1 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करे
    2. कोणीय धब्बा रोग के नियंत्रण के लिए बीज को बोने से पहले स्टेप्टोसाइक्लिन (1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में) बीजोपचार करे ।
    3. खेत में कोणीय धब्बा रोग के लक्षण दिखाई देते ही स्टेप्टोसाइक्लिन का 100 पी.पी.एम (1 ग्राम दवा प्रति 10 ली. पानी) घोल का छिड़काव 15 दिन के अंतर पर दो बार करें।
    4. कवक जनित रोगों की रोकथाम हेतु एन्टाकाल या मेनकोजेब या काँपर ऑक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम दवा को प्रति लीटर पानी के साथ घोल बनाकर फसल पर 2 से 3 बाद 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।
    5. जल निकास का उचित प्रबंध करें।

    न्यू विल्ट रोग (नया उकठा) New Built Disease (New Pick Disease) :-

    पौधे में लक्षण उकठा (विल्ट) रोग की तरह दिखाई देते हैं पौधे के सूखने की गति तेज होती है। अचानक पूरा पौधा मुरझाकर सूख जाता है । एक ही स्थान पर दो पौधों में से एक पौधों का सूखना एवं दूसरा स्वस्थ होना इस रोग का मुख्य लक्षण है। इस रोग का प्रमुख कारण वातावरणीय तापमान में अचानक परिवर्तन, मृदा में नमी का असन्तुलन तथा पोशक तत्वों की असंतुलित मात्रा के कारण होता है।
    नया उकठा रोग के नियंत्रण -- के लिए यूरिया का 1.5 प्रतिशत घोल (100 लीटर पानी में 1500 ग्राम यूरिया) 1.5 से 2 लीटर घोल प्रति पौधा के हिसाब से पौधों की जड़ के पास रोग दिखने पर एवं 15 दिन के बाद डालें।

    उपज (Yield) :-
    देशी/उन्नत जातियों की चुनाई प्रायः नवम्बर से जनवरी-फरवरी तक, संकर जातियों की अक्टूबर-नवम्बर से दिसम्बर-जनवरी तक तथा बी.टी. किस्मों की चुनाई अक्टूबर से दिसम्बर तक की जाती है। कहीं-कहीं बी.टी. किस्मों की चुनाई जनवरी-फरवरी तक भी होती है। देशी/उन्नत किस्मों से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, संकर किस्मों से 13-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथी बी.टी. किस्मों से 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक औसत उपज प्राप्त होती है।

    कपास की चुनाई के समय रखन वाली सावधानियाँ (Precautions during cotton selection) :-

    1. कपास में टिंडे पूरे खिल जाये तब उनकी चुनाई कर लीजिये ।प्रथम चुनाई 50 से 60 प्रतिशत टिण्डे खिलने पर शुरू करें और दूसरी शेष टिण्डों के खिलने पर करें ।
    2. कपास की चुनाई प्रायः ओस सूखन के बाद ही करनी चाहिए।
    3. अविकसित, अधखिले या गीले घेटों की चुनाई नहीं करनी चाहिए ।
    4. चुनाई करते समय कपास के साथ सूखी पत्तियाँ, डण्ठल, मिट्टी इत्यादि नहीं आना चाहिए।
    5. चुनाई पश्चात् कपास को धूप में सुखा लेना चाहिए क्योंकि अधिक नमी से कपास में रूई तथा बीज दोनों की गुणवत्ता में कमी आती है । कपास को सूखाकर ही भंडारित करें क्योंकि नमी होने पर कपास पीला पड़ जायेगा व फफूंद भी लग सकती हैं।

    कपास की खेती में कुछ और जरुरी बाते (Some more important things in cotton farming) :-

    1. सामान्यतः उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन/डिलिन्टेड) तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिए उपयुक्त होता हैं।
    2. उन्नत जातियों में चैफुली 45-60×45-60 सेमी. पर लगायी जाती हैं (भारी भूमि में 60×60, मध्य भूमि में 60×45, एवं हल्की भूमि में ) संकर एवं बीटी जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमशः 90 से 120 सेमी. एवं 60 से 90 सेमी रखी जाती हैं
    3. उर्वरकों को बुआई के समय देने पर व जड़ क्षेत्र में होने पर ही सबसे अधिक उपयोग-दक्षता प्राप्त होती है। अतः आधार खाद को बुआई के समय ही व बुआई की गहराई पर प्रदाय करना चाहिए।
    4. जिले की मिटटी में ज़िंक एवं सल्फर की कमी पाई गई है। अतः आखरी बखरनी के बाद जिंक सल्फेट 25 किग्रा./हेक्टेयर डालना चाहिए। या मृदा परीक्षण के परिणामों के आधार पर सुक्ष्म तत्वों का उपयोग करना चाहिए।
    5. सिंचाई हेतु टपक सिंचाई पद्धति अपनाकर कपास में अच्छा परिणाम मिलता है।
    6. न्यू विल्ट रोग की रोकथाम हेतु उचित जल निकासी के साथ यूरिया का 1.5 प्रतिशत घोल , 1 लीटर द्ध का पौधों के पास भूमि में डालना
    7. कपास की जैविक खेती करने से कपास में रसायनो का प्रभाव नहीं रहता है। मिट्टी व पर्यावरण शुद्ध रहेगा, एक्सपोर्ट क्वालिटी का होने के कारण बाजार भाव अच्छा (लगभग डेढ गुना )मिलेगा। जैविक खेती करने के लिए निम्न किस्मों का उपयोग कर सकते है।एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) , डी.सी.एच. 32 , एच-8 , जी कॉट 10 , जेके.-4, जेके.-5 जवाहर ताप्ती,
    8. सघन खेती: कपास की सघन खेती में कतार से कतार 45 सेमी एवं पौधे से पौधे 15 सेमी पर लगाये जाते है, बीज दर 6 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखी जाती है। इससे 25 से 50 प्रतिशत की उपज में वृद्धि होती है। इस हेतु उपयुक्त किस्में निम्न है:- एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) , एनएचएच 48 बीटी (2013) जवाहर ताप्ती, जेके 4 , जेके 5 आदि।

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